October 2, 2013

गाँधी....... तुम कब आओगे दुबारा?


गाँधी जी के राजनीतिक विचारों से जुड़ी कई मुद्दों पर अपनी असहमति रखते हुए भी मैंने अपने जीवन में कई बातें उनसे सिखने लायक समझा है. समाज जीवन में सक्रीय रहने वाले लोगों के लिए वे निश्चित तौर से एक आदर्श व्यक्तित्व है. वैसा व्यक्ति जो अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता करता है, अकेले चलने का साहस करता है और फिर अपने कृतित्व के प्रभाव से लोगों को अपने पीछे नही, एक विचार, एक मुद्दें के साथ जुड़ने और चलने को मजबूर करता है. व्यक्तिगत जीवन में हम बोलते कुछ और है, करते कुछ और है. कई लोग गरीबों के बीच काम तो करते है, लेकिन गरीब नही दिखना चाहते। उनके सेवा भाव में भी एक अहंकार की प्रवृति छिपी दिखाई देती है. लेकिन गाँधी इनमे से नही थे. वे जो थे, वही दीखते भी थे. 
           
               एक मैग्जीन के गाँधी विशेषांक हेतु कुछ लिखा था, सोचा आपसे शेयर करूँ। प्रश्नोत्तरी के रूप में दिए सवालों के जबाब मैंने कुछ यु लिखे थे

September 30, 2013

लालू की सजा से दुखी जानवर समाज ने किया संघर्ष का एलान


चारों तरफ़ मायूसी का मंज़र! रोते विलखते जानवर! पशु नेताओं के चेहरे पर परेशानी की लकीरे! सबके सब गुस्से में! कुछ ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला नई दिल्ली स्थित चारा भवन में! मौका था, लालू जी के समर्थन में जानवरों के प्रेस कांफ्रेंस का!

आज कथित चारा घोटाले में लालू यादव को दोषी ठहराए जाने पर जानवरों के सबसे शक्तिशाली संघ “प्रगतिशील जानवर संघ” ने अपना रोष प्रकट किया है. संघ ने अपने एक बयान में कल देश के सभी जानवरों से भारत बंद का आह्वान किया है.

अपने लगातार बहते आंसू को रोकते हुए संघ के अध्यक्ष कल्लू भैंस ने एक्सक्लूसिव बयान देते हुए बताया, “लालू जी जानवर से बड़ा प्यार-मोहब्बत वाला रिश्ता रखते थे. यहाँ तक कि अपनी पत्नी भी खोजी तो उसमे भी जानवरों के प्रति प्रेम झलका. राबड़ी तो छोड़ो, आज के दिन कोई मख्खन नाम के भी लड़की से शादी नही करेगा”.

September 29, 2013

कब लौटेगी नवरूणा?

बेटियों को पूजने वाले देश में जब माँ-बहनों की सरेआम अस्मत लुटनी शुरू हो जाए! मैत्रेयी, गार्गी के देश में बेटियों का दुनिया से आँखें मिलाकर बात करना दुश्वार हो जाए! कभी स्वयंवर रचाकर वर खोजने की इजाज़त देने वाला समाज, उसकी अपनी पसंद, नापसंदगी के दायरे में हस्तक्षेप करने की वजाए मरने-मारने पर उतारू हो जाए, यह समझना मुश्किल नही कि हम किस दौर से गुजर रहे है! लेकिन इंसानियत तब तार-तार हो जाती है जब रक्षक भक्षक बन जाए, अपनी बारी का इंतजार करता समाज चुप्पी साधे तमाशा देखता रहे और प्रबुद्ध वर्ग सरकार को ड्राईंग रूम से कोसता रहे! दुःख तो तब होता है, जब पता चलता है कि अपराधी और अपराध का भी एक वर्ग बना दिया जाता है अपने देश में, जहाँ एक बेटी के साथ हुए अन्याय में अपनी नाकामी छुपाने और जन-विरोध को देखते हुए उसे न्याय दिलाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी जाती है, लेकिन दूसरी ओर हजारों बेटियों की कोई परवाह नही रहती. उसे बचाने की कोशिश भी होती सही से दिखाई नही देती. इसी का नमूना है नवरूणा.      

September 28, 2013

“राईट टू रिजेक्ट” के किन्तु परन्तु


चुनाव में जबतक सभी मतदाता भाग नही लेंगे, हम कैसे एक आदर्श लोकतंत्र की बात करने की सोचेंगे! चुनाव में “इनमे से कोई नही” विकल्प के साथ साथ लोकतंत्र की मजबूती के लिए “इनमे से कोई मतदान करने से नही छुटा” भी होना अनिवार्य है. भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि सभी मतदाता चुनाव में मतदान नही करते. 

जनभावनाओं को नकारना भले ही जनप्रतिनिधियों की आदत हो गई हो, लेकिन कोर्ट द्वारा दिए गये हालिया फैसले से ऐसा लगता है कि बदलाव की शुरुआत हो गई है. जड़ता समाप्त होगी! जन-मन की भावनाओं से संस्थाओं को जुड़ना ही पड़ेगा! जिस फैसले को कोर्ट ने कभी सुनने से इंकार किया था, उसपर न फैसला सुनाया, बल्कि एक इतिहास रच दिया. आज उसकी झलक भी देखने को मिली. सुप्रीम कोर्ट ने नकारात्मक मतदान अर्थात “राईट टू रिजेक्ट” की बहुत पुरानी मांग आज मान ली है. कोर्ट ने अपने एक फैसले में चुनाव आयोग को ईवीएम मशीनों में “इनमें से कोई नही” बटन लगाने के निर्देश दिए है.

September 10, 2013

क्रांति चौक का मौन क्रंदन .....अस्तित्व की तलाश में छात्र राजनीति

आज़ादी के 66 वर्षों बाद भी भारतीय लोकतंत्र वंशवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धनबल, बाहुबल, योग्य नेतृत्व की जगह मुखौटे का इस्तेमाल कर राज करने जैसे जिन मजबूत आधारस्तंभों पर टिका दीखता है, उसकी एक इकठ्ठी झलक हमें देशभर में होनेवाले छात्र संघ चुनावों में देखने को मिल जाती है! होना तो कायदे से यह था कि छात्र संघ चुनाव भारतीय लोकतंत्र की आदर्श अवधारणा को दर्शाती! उसे मजबूत करने का भरोसा दिलाती! लेकिन छात्र राजनीति भी उसी राह पर चलती दिखाई पड़ती है, जिसपर मुख्यधारा की राजनीति! यह कहना गलत नही होगा कि सारी बुराईयाँ इसमें समाहित हो चुकी है!

August 10, 2013

प्रेम पत्रों के बगैर मुहब्बत की मैसेजवाली दुनिया

हरदिल अज़ीज़ मुकेश दा के गाए एक गीत के बोल कुछ इस तरह है..

“लिखे जो ख़त तुझे, वो तेरी याद में,
हजारों रंग के, नजारे मिल गए,
सवेरा जब हुआ, तब फुल खिल गए,
जो रात आई तो, सितारें बन गए.”

             ये गीत महज किसी गीतकार के ख्यालों में आए शब्द नही, प्यार में डूबे दों माशूकाओं की खुबसूरत दुनिया को जताने का तरीका भी बताता है. लेकिन तकनीकी (Technology) और इंटरनेट के सामाजिक मंचों (Social Networking sites-Facebook/Twitter) ने इश्क-मोहब्बत की खूबसूरत "प्रेम पत्रों की दुनिया" को बड़ी बेरहमी से उजाड़कर, इसे आज चैटिंग,  ईमेल में बदल दिया है.

July 24, 2013

स्वर्णिम अतीत का खंडहर वर्तमान


अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि उत्तर बिहार में सबसे पहले उच्च शिक्षा की दीप जलाने वाले सुप्रसिद्ध लंगट सिंह महाविद्यालय (एल एस कॉलेज) का छात्र रहा हूँ! कॉलेज में अपनी पढ़ाई पूरी किए चार वर्ष बीत गए, लेकिन कॉलेज से कभी मोह भंग नहीं हुआ. हजारों किलोमीटर दूर रहने के बाद भी वैसा ही लगाव बना रहा, जैसा पढ़ाई के दौरान था. कॉलेज के साथ साथ ड्यूक हॉस्टल में बिताए दिन हो या शिक्षकों के असीमित पाए स्नेह, सच कहे तो आज भी यह अपना ही लगता है, बिल्कुल अपने घर जैसा!   
जंगल में बदला कॉलेज का उद्यान....चित्र में दीवारों पर उगे पेड़ स्पष्ट देखे जा सकते जा सकते है जिनकी वजह से दीवारे जगह जगह फट गई है

July 18, 2013

स्वदेशी शरणार्थी


अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर दिल्ली लौटा तो मालूम चला, फिर से मुन्ना बेघर हो गया! वैसे भी उसे पेड़ और दीवारों के सहारों पर टिके, प्लास्टिक से ढके और फुटपाथ पर अपने प्रतिदिन बननेवाले घर में कभी सुकून की जिन्दगी जीने का मौका नही मिला होगा! लेकिन पुलिसिया डंडे के जोर पर उसे पिछले दिनों अपने ठिकाने बदलने पर मजबूर होना पड़ा! मुन्ना का बस इतना सा जुल्म है कि वह ईमानदारी और मेहनत से अपना जीवन जीना चाहता है. स्वाबलंबी बनने की चाहत उसे यूपी से दिल्ली खिंच लाई लेकिन अनपढ़ होने की वजह से जब कोई दूसरा काम करना उसे नही सुझा तो भाड़े पर रिक्शा लेकर चलाना शुरू कर दिया. उसने फुटपाथ को अपना ठिकाना बनाया और अपने सुखद भविष्य की आस लिए अपने जीवन की कहानी बुनने में लग गया. वह दिन में काम करता था और रात में थोड़ी सी जगह घेरकर फुटपाथ पर सो जाता था. लेकिन अफ़सोस! सड़कों की सुन्दरता के सामने उसकी मजबूरियों को कोई तवज्जो नही मिली! पिछले दिनों उसे उजाड़ दिया गया.... उसके सपनो सहित! लेकिन उसने अभी हार नही मानी है! वह फिर से एक नए ठिकाने की तलाश में निकल पड़ा है!
    
दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज के बगल में बने फुटपाथ पर रहनेवाले और रात में नियमित तौर पर लॉ फैकल्टी के साथियों को अपने कमरे तक पहुँचाने वाले लगभग 25 वर्षीय मुन्ना को हमने कभी निराश, हताश नहीं देखा! मुन्ना के लिए संविधान की किताब में लिखे अनु. 14 और 19 ज्यादा मायने नही रखते जो समानता और स्वतंत्रता की बात तो करता है लेकिन फुटपाथ पर भी जीने नही देता. ऐसे न जाने कितने मुन्ना की कहानी अनकही, अनसुनी है, जिनके अपने कोई ठिकाने नहीं होते बल्कि उनके हिस्से बस उजड़ना, उजड़ के बसने की कोशिश करना, फिर उजड़ना और ऐसे ही उजड़ते, बसते, बिखरते दुनिया से रुखसत हो जाना लिखा है!