July 18, 2013

स्वदेशी शरणार्थी


अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर दिल्ली लौटा तो मालूम चला, फिर से मुन्ना बेघर हो गया! वैसे भी उसे पेड़ और दीवारों के सहारों पर टिके, प्लास्टिक से ढके और फुटपाथ पर अपने प्रतिदिन बननेवाले घर में कभी सुकून की जिन्दगी जीने का मौका नही मिला होगा! लेकिन पुलिसिया डंडे के जोर पर उसे पिछले दिनों अपने ठिकाने बदलने पर मजबूर होना पड़ा! मुन्ना का बस इतना सा जुल्म है कि वह ईमानदारी और मेहनत से अपना जीवन जीना चाहता है. स्वाबलंबी बनने की चाहत उसे यूपी से दिल्ली खिंच लाई लेकिन अनपढ़ होने की वजह से जब कोई दूसरा काम करना उसे नही सुझा तो भाड़े पर रिक्शा लेकर चलाना शुरू कर दिया. उसने फुटपाथ को अपना ठिकाना बनाया और अपने सुखद भविष्य की आस लिए अपने जीवन की कहानी बुनने में लग गया. वह दिन में काम करता था और रात में थोड़ी सी जगह घेरकर फुटपाथ पर सो जाता था. लेकिन अफ़सोस! सड़कों की सुन्दरता के सामने उसकी मजबूरियों को कोई तवज्जो नही मिली! पिछले दिनों उसे उजाड़ दिया गया.... उसके सपनो सहित! लेकिन उसने अभी हार नही मानी है! वह फिर से एक नए ठिकाने की तलाश में निकल पड़ा है!
    
दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज के बगल में बने फुटपाथ पर रहनेवाले और रात में नियमित तौर पर लॉ फैकल्टी के साथियों को अपने कमरे तक पहुँचाने वाले लगभग 25 वर्षीय मुन्ना को हमने कभी निराश, हताश नहीं देखा! मुन्ना के लिए संविधान की किताब में लिखे अनु. 14 और 19 ज्यादा मायने नही रखते जो समानता और स्वतंत्रता की बात तो करता है लेकिन फुटपाथ पर भी जीने नही देता. ऐसे न जाने कितने मुन्ना की कहानी अनकही, अनसुनी है, जिनके अपने कोई ठिकाने नहीं होते बल्कि उनके हिस्से बस उजड़ना, उजड़ के बसने की कोशिश करना, फिर उजड़ना और ऐसे ही उजड़ते, बसते, बिखरते दुनिया से रुखसत हो जाना लिखा है!


दिल्ली में उजड़ने-बसने की कहानी कोई नई नही है, लेकिन अपने ही देश में, अपने ही लोगो द्वारा, अपने ही लोगो से किस प्रकार का व्यवहार देखने को मिलता है, उसका यह वीभत्स नमूना हमने पहली बार बहुत नजदीकी से देखा है. राष्ट्रमंडल खेल की चकाचौंध में जब दिल्ली चमक रही थी, उस दौरान भी हमने सैंकड़ो परिवारों को रातों-रात उजड़ते देखा था. पता नही कहाँ गए वो लोग जो आज से 3 साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर के आसपास रहा करते थे! शायद कोई सुध भी नही लेता होगा उनकी! वैसे भी किसे फ़िक्र है इन बातों की! लेकिन यह अंतर्मन को झकझोड़ने वाली घटना थी जिसने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया!
  
भारत में अपने ही नागरिकों को किस प्रकार से दोयम दर्जे का जीवन जीना पड़ता है, उसके नमूने वैसे तो आज़ादी के 65 वर्षों बाद भी पुरे देश में देखने को मिल जाएंगे! आश्चर्य तो तब होता है, जब वह नजारा राजधानी दिल्ली में दिखाई पड़ती है, जहाँ हर वर्ष न जाने कितनों बार, देशवासियों को सुखी, समृद्ध जीवन जीने के सपने भाषणों में दिखाए और नए नए योजनाओं को चलाकर दिलाए जाते है!  

कभी कभी जेहन में आता है, हमारे जैसे लोग (विद्यार्थी) जो उम्मीदों की बड़ी गठरी लिए दिल्ली आते है, क्या उनकी कहानी इनसे कुछ अलग है? क्या उजड़ने-बिखड़ने का सिलसिला बस मुन्ना जैसे लोगों के साथ ही चलता रहता है? क्या ऐसी परेशानी और किसी को नही झेलनी पड़ती? जबाब मिलता है- बिल्कुल नही! परिस्थितियां भले ही भिन्न हो, लेकिन हमारे साथ वैसा ही सलूक होता है, जैसा इनके साथ! हम भी उजड़ते है! उजड़कर फिर से बसने की हिम्मत करते है लेकिन अफ़सोस! बहुत कम ऐसे लोग होते है जो उजड़कर बसने में कामयाब होते है! अधिकतर न केवल उजड़ते है बल्कि अपने सपनों को टूटते-बिखरते देख कर भी कुछ नही कर पाते! चाहकर भी हम कुछ नही कर पाते! चीखते-चिल्लाते है, फिर शांत हो जाते है! लगता है जैसे, हम अपने ही देश में स्वदेशी शरणार्थी बनकर रह गए है

आज से तीन वर्ष पहले दिल्ली आया था! तब दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन का सपना तो पूरा हो गया, लेकिन आशियाने की तलाश में भटकने के लिए हमें एक अजनबी शहर में छोड़ दिया गया! तमाम पहचान-पत्रों के बावजूद दलालों को रुपए खिलाकर ठिकाने मिल तो गए लेकिन सुकून की जिन्दगी नहीं मिली. पहले लगा, शायद यह समस्या सिर्फ हमारे सामने है, लेकिन गौर से देखा तो हजारों विद्यार्थी इससे जूझ रहे है. बिना किसी सुविधा बढाए सुरसा के मुहं की तरह बढ़ते किराए की दर रुलाती-तड़पाती रही! अपनी मेहनत-मजूरी से किसी तरह एक छोटी राशी भेजने वाले पिता के दर्द, उनके सपनों के मोल, मकान मालिकों के मूल्यों से तय होते देख छाती फटती रही! लेकिन क्या कर सकते थे! ज्यादा बोलने पर बेदखल कर दिए जाते! फिर कहाँ जाएंगे? पता नही कितना किराया देना पड़ेगा? दलालों के चक्कर में कितना घूमना पड़ेगा?- जैसी बातों को सोचकर चुप रहना अपनी नियति सी बन गयी! 

किराए की जिन्दगी किराए देने और माकन मालिकों के ताने सुनने में ही उलझी रही. इनसे निजात पाने के उपाय है लेकिन वह बस किताबों में देखने को ही मिले. दिल्ली में रूम रेंट कण्ट्रोल एक्ट एक किताबी नियम ही बनकर रह गयी है जिसे लागू करवाने की तोहमत प्रॉपर्टी डीलर की बड़ी लॉबी के आगे कोई नही लेना चाहता! दूर-दराज से आनेवालें छात्रों को हॉस्टल की सुविधा मुहैया कराने के लिए आवाज उठाने की किसी भी राजनीतिक दल, छात्र संगठन को फुर्सत नही है. पूर्व में राष्ट्रमंडल खेल गाँव को दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को हॉस्टल के रूप में देने की योजना थी, लेकिन वह हकीक़त में नही बदला. सब चुप रहे और खेल गाँव बिक गया. यह घटना न केवल छात्र-हितों के लिए लड़ने वालों की असलियत की पोल खोलता है बल्कि इसके पीछे छिपे उन मंसूबों पर से पर्दा हटाता है जो छात्र-हितों की तिलांजलि देकर स्वार्थ की राजनीति करती है.       

दिल्ली में सबसे ज्यादा मकान-मालिको की संवेदनहीन मनमर्जी परेशान करती है! चप्पलों की गिनती होती है. सब ऐसा व्यवहार नही करते, लेकिन दिल्ली में वैसे मालिक मालिक केवल नाममात्र के मिला करते है. अराजक स्वछंदता ठीक नही है और अगर माकन मालिक निगरानी रखता है तो उसे किसी भू हालत में गलत नही ठहराया जा सकता. लेकिन पहरेदारी और रंगदारी की इजाज़त भला कौन चाहेगा. बेटे की तरह तो नही, लेकिन मनुष्यों जैसे व्यवहार की दरकार घर से हजारों किलोमीटर दूर रहने पर तो होती ही है लेकिन वह कई बार दूर-दूर तक दिखाई नही देता. सच कहे तो अपनेपन के भाव के अभाव में जीना अखरता है!

कहते है न! नए जगह पर पैसे से सबकुछ मिल जाता है लेकिन माँ-बाप नही मिलते, अपनेपन का एहसास नही मिलता! दिल्ली के मामले में यह बिल्कुल फिट बैठता है. दिलवालों के शहर कहे जाने दिल्ली में अगर आप मेहनतकश गरीब है या आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के विद्यार्थी, आपके हिस्से चुप रहकर सबकुछ सहना या बस उजड़ना ही लिखा है! बस बार बार उजड़कर बसने की जिद ही आपका सच्चा साथी बनता है वरना दिलवालों की राजधानी मुन्ना जैसे लोगों के लिए दर्द की राजधानी ही है!        

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