December 2, 2014

शर्मनाक ! शहीद खुदीराम बोस की चिता पर शौचालय


"शहीदों के चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा!"

मगर अफ़सोस, यह स्थिति सबसे कम उम्र में फांसी की सजा पाने वाले खुदीराम बोस की चिता स्थली के मामले में बिल्कुल अलग है. न तो खुदीराम बोस की चिता स्थली पर कोई निशान बचा है, न ही हर बरस कोई मेला लगता है. हकीक़त तो यह है कि लगभग 18 वर्ष की उम्र में हँसते हँसते फांसी के फंदे को चूमने वाले अमर शहीद खुदीराम बोस की चिता स्थली पर शौचालय बना हुआ है.

शहादत भूमि पर शौचालय की बात सुनकर किसी को भी आश्चर्य होगा!कितना शर्मनाक है कि एक जाबांज शहीद की शहादत को सम्मान देने की वजाए वहां शौचालय बना दिया, जहाँ 11 अगस्त, 1908 को इस वीर क्रांतिकारी की चिता फांसी पर चढ़ाने के बाद सजाई गई थी. गंडक नदी के तट पर बसे सोडा गोदाम चौक, चंदवारा नाम से प्रसिद्ध यह जगह मुजफ्फरपुर स्थित केंद्रीय कारागार से करीब दो किलोमीटर के दायरे में ही है, जहाँ शहीद खुदीराम बोस को फांसी दी गई थी.

इस जगह की पुष्टि ऐतिहासिक दस्तावेज भी करते है.खुदीराम की फांसी के बाद जो समाचार बनारस से छपने वाले विख्यात साप्ताहिक समाचार-पत्र “भारत जीवन” के 17 अगस्त, 1908 के अंक में प्रकाशित हुआ था, वह इस प्रकार है :


(संदर्भ : स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन, लेखक महेश शर्मा)


शाम होते ही मयखाने में तब्दील हो जाती है जगह

स्थानीय मीडिया रिपोर्ट की माने तो शाम होते ही यहाँ शराबियों का जमघट लग जाता है. खुलेआम शराब बेचे-खरीदें जाते है. खुदीराम बोस से जुड़े स्थल के बारे में ऐसी बातें सुनकर मन किसी का भी व्यथित हो सकता है. इसलिए हकीक़त जानने हेतु पिछले दिनों स्वयं लेखक ने अपने साथीयों, जिनमें ब्रजेश कुमार, संतोष चौधरी, ऐश्वर्या सिंह व पंकज कुमार पटवारी शामिल थे, के साथ उस जगह का दौरा किया. इस दौरान स्थानीय लोगों से बातचीत भी की. बातचीत के दौरान सबने इन बातों की पुष्टि की. स्थानीय लोग शौचालय निर्माण से नाराज थे, लेकिन वंचित तबकों के लोगों के इलाकें में इस शर्मनाक काम को रोकने की किसी ने हिमाकत नही की. हालांकि इसी 11 अगस्त को शहीद के पुण्यतिथि की पूर्वसंध्या पर कुछ अज्ञात युवाओं ने इस शौचालय के छत और दिवार को तोड़ दिया, लेकिन उसका मलबा अभी भी वैसे ही पड़ा है. (देखे चित्र)  
चिता भूमि पर शौचालय 

स्थानीय युवकों ने 11 अगस्त, 2014 को शौचालय के ढाँचा को तोड़ दिया, लेकिन मलबा वैसे ही पड़ा हुआ है 

जाहिर सी बात है, बेहद घनी आबादी वाले इस क्षेत्र में शौचालय का ढ़ांचा तोड़ने की इस घटना को स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त रहा होगा। शौचालय टूटने से कही न कही नुकसान तो स्थानीय लोगों का ही हुआ. फिर भी वे इस घटना से बेहद खुश दिखे. वे चाहते थे कि अब तो शहीद का स्मारक जल्द से जल्द बन ही जाना चाहिए, साथ ही उनकी जरूरतों का भी ख्याल रखा जाए. लोगों को उम्मीद है कि इस स्थल का विकास होगा, जिससे उनके क्षेत्र का ही भला होगा. उस समय हुई बातचीत का एक अंश 


चिता स्थल को संवारने की पहल

स्थानीय लोगों ने शहीद खुदीराम बोस चिता भूमि के सौन्दर्यीकरण का बीड़ा उठाया है. हस्ताक्षर अभियान, मशाल जुलुस जैसे कार्यक्रमों के जरिए इस जगह को सरकारी पहचान दिलाने में लोग लगे है. इस काम में उन्हें कई संगठनों का सहयोग मिला. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स 


हाल ही में उन्होंने बजाप्ता एक समिति का गठन करके इस जगह को एक पहचान दिलाने की कोशिशें तेज कर दी है. समिति से जुड़े लोग शहीद खुदीराम बोस स्मृति स्मारक बनाने, पर्यटन की दृष्टि से इसका विकास करने, पटना से इस स्थल तक सीधी बस सेवा शुरू करने, चिता स्थल के पास खाली पड़ी भूमि पर सुंदर व भव्य पार्क बनवाने व मोहल्ले का नामकरण शहीद खुदीराम बोस नगर करने की मांग सरकार व स्थानीय जन प्रतिनिधियों से कर रहे है. लेकिन इन मांगों पर अभी तक कोई विशेष कारवाई नही हो पाई है. समिति के संयोजक और चिता स्थल पर स्मारक बनाने के लिए संघर्षरत शशिरंजन उर्फ़ पिंकू शुक्ला उन चंद लोगों में से है, जिन्होंने न केवल चिता स्थल की दुर्दशा की सुध ली बल्कि शहादत को सम्मान दिलाने के लिए स्थानीय लोगों के सहयोग से लगातार सक्रीय भी है. पिंकू शुक्ला स्थानीय जनप्रतिनिधियों से लेकर सरकार के नुमायिन्दों तक अपनी बात पहुंचाने में कोई कोर कसर नही छोड़ रखी है. बात करने पर पिंकू सीधा बोलते है, “जबतक इस जगह का जीर्णोद्धार नहीं होगा, हमारा संघर्ष जारी रहेगा.” 

हाल ही में समिति के सदस्यों ने जब स्थानीय भाजपा सांसद अजय निषाद के संज्ञान में यह बात लाई तो उन्होंने न केवल चिता स्थल पर स्वयं जाकर जायजा लिया बल्कि इस स्थल के पुनर्निर्माण के लिए अपने सांसद निधि कोष से 20 लाख रुपया देने की घोषणा भी की. स्वयं लेखक को सांसद ने पिछले दिनों फ़ोन पर हुई बातचीत में इन बातों की पुष्टि की थी. 
चिता स्थल का मुआयना करते स्थानीय सांसद अजय निषाद 

लेकिन सारा मामला नगर निगम के पास अटका है. नगर आयुक्त की माने तो यह स्थल विवादित है व न्यायालय में विचाराधीन है. जबतक हमें ज़मीन नही मिलती, तबतक हम कुछ नही कर सकते.

मुजफ्फरपुर के नगर आयुक्त हिमांशु शर्मा कहते है कि शौचालय अब नही है. वह टूट चूका है. हमने न शौचालय बनवाया था, न ही तोड़ा है. वहां के लोगों में से ही किसी ने एनजीओ की मदद से सुलभ शौचालय बनवाया, बाद में वही के कुछ अन्य लोगों ने उसे तोड़ दिया. जहाँ तक ज़मीन की बात तो 1932 में निगम ने उसे ख़रीदा था, जिस पर कोई और अधिकार जमा रहा है और कोर्ट में मुक़दमा चल रहा है. अभी प्रस्ताव हमारे पास आया है कि उस जगह की नापी करवाकर व कोर्ट से ज़मीन वापस लेकर स्मारक बनवाए. कोर्ट से मुक़दमा जीतकर जब हमारे कब्ज़े में ज़मीन वापिस आएगी तो निश्चित रूप से हम वहां स्मारक बनवाएंगे. जाहिर सी बात में वर्तमान स्थिति में सारा मामला कोर्ट और नगर निगम के पाले में है.

चिता स्थल के समीप खाली है सरकारी ज़मीन 

चिता स्थल के आसपास काफी ज़मीन खाली है, जहाँ पर स्मारक स्थल के साथ साथ पार्क बनाया जा सकता है. (चित्र देखे)
चिता स्थल के सामने वाले हिस्से के आसपास का दृश्य 

चिता स्थल से ठीक सटे बगल में (पीछे)

चिता स्थल के पीछे का हिस्सा 
   
विधानसभा में उठा था मामला, फिर भी बिहार सरकार है अबतक खामोश

दुर्भाग्यवश बिहार सरकार भी इस मामले में खामोश है. बिहार के निर्दलीय विधायक किशोर कुमार ने अमर सेनानी शहीद खुदीराम बोस से जुडे ऐतिहासिक स्थलो की बदहाली का मामला 5 मार्च, 2011 को विधानसभा में शून्य काल कें दौरान उठाया था, जिसमें सरकार से उन स्थलो को राष्‍टीय स्मारक के रूप में विकसित करने की मांग की गई थी. तब विधानसभा में बोलते हुए किशोर कुमार ने कहा था कि "फांसी के बाद शहीद खुदीराम बोस का मुजफ्‌फरपुर के बर्निंगघाट पर अंतिम संस्कार किया गया था लेकिन उस स्थल पर शौचालय बना दिया गया है. इसी तरह किंग्सफोर्ड को जिस स्थल पर बम मारा गया था, उस स्थल पर मुर्गा काटने और बेचने का धंधा हो रहा है. यह शहीदों के प्रति घोर अपमान और अपराध है.” विधायक ने राज्य सरकार से इस मामले को गंभीरता से लेने और शहीद खुदीराम बोस से जुडे ऐतिहासिक स्थलो को संरक्षित कर पर्यटक धरोहर और राजकीय स्मारक के रूप में विकसित करने की मांग भी की थी ताकि आने वाली पीढी इससे प्रेरणा ले. लेकिन फिर भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ।

कल उनकी जन्मतिथि है. 3 दिसंबर 1889 को जन्में खुदीराम को भले ही अपने बलिदान पर फ़क्र महसूस होता होगा, लेकिन अपने चिता स्थल की ऐसी दुर्दशा देख उन्हें भी जरुर अफ़सोस होता होगा! यहाँ तक की उनकी शहादत स्थल को भी जेल की एक काल-कोठरी तक समेट दिया गया है, जहाँ लोग आम दिनों में नही जा सकते. मुजफ्फरपुर जेल की जिस कोठरी में खुदीराम बोस को रखा गया था, वह वर्ष में केवल एक दिन उनके शहादत दिवस के मौके पर ही खोला जाता है, वह भी रात को। आखिर एक क्रांतिकारी के शहादत से जुड़ी स्थल को आमजन के लिए खोलने में क्या परेशानी है! अगर यह सुरक्षा वजहों से है, जो पर्याप्त सुरक्षा जांच घेरे में इच्छुक दर्शनार्थियों के लिए तो जगह खोला ही जा सकता है. 

जिस खुदीराम बोस को बंगाल की किताब में आतंकी कहने पर देशभर में बवाल मच जाता हों, उसी व्यक्ति के शहादत स्थल पर एक शर्मनाक खामोशी दिखाई दे रही है. आने वाले दिनों में यह देखना होगा कि आखिर बिहार सरकार कब सुध लेती है शहादत के इस अपमानित विरासत का? शहीद के चिता पर शौचालय की जगह स्मारक बनने की अभिलाषा पूरी करने में केंद्र सरकार कोई पहल करती है या नहीं? फिलहाल स्थानीय पहल करके लोग इस जगह को पहचान दिलाने के लिए जितना कर सकते है, कर रहे है. अगर हम सब मिलकर प्रयास करें तो अमर शहीद खुदीराम बोस की इस चिता स्थली का न केवल सम्मान लौटा पाएंगे, बल्कि सच्चें अर्थ में एक शहीद के शहादत के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. हमने एक छोटी सी भूमिका निभाते हुए पूरा दृश्य आपके समक्ष रखा है. सम्बंधित लोगों तक इस बात बात को पहुंचाने में लगे भी है. उम्मीद है, सब अपने अपने प्रयासों से इस स्थान के गौरव को लौटाएंगे.

कौन थे खुदीराम बोस

अमर शहीद खुदीराम बोस 
खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के यहाँ हुआ था। देश को आजाद कराने की उनमें ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े।

इसके बाद वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम् पंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया। 

इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार 28 फरवरी 1906 को खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया।

दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परंतु गवर्नर बच गया। न 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।

खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर के सेशन जज से बेहद खफा थे क्योंकि उसने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी। उन्होंने अपने साथी प्रफुल्लचंद चाकी के साथ मिलकर सेशन जज किंग्सफोर्ड से बदला लेने की योजना बनाई।

दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दियालेकिन उस समय गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिला कैनेडी और उसकी बेटी सवार थी। किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएँ मारी गई, जिसका खुदीराम और प्रफुल्ल चंद चाकी को बेहद अफसोस हुआ।

अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लचंद चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी, जबकि खुदीराम पकड़े गए। 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दे दी गई। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 साल, 8 महीने, 8 दिन थी।

फांसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगेजिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।

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