Pages

April 18, 2020

Ban Zoom , Save Children


Technology can't replace Teacher, nor any digital content can match with any classroom experience. Unfortunately, these days 91% of the world’s student population* is not in the classroom due to COVID-19 and these students have only one option i.e. Technology to be in touch with their Teachers. Zoom is one of them. 

Zoom has security flaws that have prompted some leading organisations, companies like Google, government agencies, and school across the world to ban Zoom or restrict its use. Even the Indian Home Ministry is also advising Govt officials not to use it. Although a tech-savvy person can use it while following all guidelines, we can't expect the same from school going primary school kids and parents to follow all security guidelines when they have no awareness, nor they've received any institutional advisory. Govt advisory was not shared among the public, nor these advisories were widely circulated by Govt of India or any other State Govt.

To safeguard vulnerable parents and their children, I have initiated a campaign to raise the issue before the competent authority. I think, to protect our students and teachers, we need to ban zoom from being used in all schools in India.

राष्ट्रीय अनुशासन से जीतेंगे कोरोना की जंग




कोरोना वायरस की वजह से आज दुनिया की एक बड़ी आबादी अपनी जिंदगी बचाने की जद्दोजहद करती दिख रही है. विश्व  स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों की माने तो इस ख़तरनाक वायरस की चपेट में लगभग 4 लाख लोग है, वही 16 हजार से अधिक लोग अपनी जान गवां चुके है. विश्व की लगभग आधी आबादी अपनी घरों में कैद है. ओलंपिक टल गए. प्रार्थनाघरों में ताले लटक गए. सड़के सुनी हो गई. दुनिया के बड़े शहर वीरान से दिख रहे है.
दुनिया के वैज्ञानिकों के लगातार कोशिशों के बावजूद वायरस से लड़ने के लिए अभीतक कोई दवा विकसित नही की जा सकी है. कहा जा रहा है कि स्थिति नही संभली तो द्वितीय विश्वयुद्ध से भी ज्यादा मानवीय क्षति हो सकती है. दुनिया के तमाम देश लोगों की जिन्दगी बचाने की कोशिशों में जुटी है. वायरस को फैलने से रोकने के लिए सरकारों ने सीमाए सील कर दी, विमानों की आवाजाही रोक दी, आवश्यक कार्यों को छोड़ सारे दफ्तर बंद कर दिए. लोगों को सलाह दी जा रही है कि वे अपने घरों में रहे और साफ़-सफाई का विशेष ध्यान रखे.

नौनिहालों के लिए एकजुट हो भारत


पांचजन्य , 14 मार्च 2020



अभी हाल में आई आर्थिक समीक्षा हो या राष्ट्रीय बजट, शिक्षा क्षेत्र के लिए यह कई मायनों में विशेष था। अफ़सोस! दिल्ली के चुनावी शोर में इनपर अधिक चर्चा नही हुई। शिक्षा बजट में बढ़ोतरी हुई है। राष्ट्रीय बजट में 99300 करोड़ शिक्षा के लिए आवंटित हुए है जिसमें स्कूली शिक्षा का हिस्सा 59,845 करोड़ है, वही उच्च शिक्षा के लिए 39,467 करोड़ सरकार ने स्किल डेवेलपमेंट के लिए भी 3 हजार करोड़ अलग से आवंटित किए है। स्कूली शिक्षा के लिए आवंटित बजट में एक बड़ा हिस्सा 11000 करोड़ मिड-डे मिल योजना के लिए है। शिक्षा बजट के अलावा नई शिक्षा नीति का विषय ही बजट भाषण में स्कूली शिक्षा से जुड़ा था, जिसकी प्रतीक्षा देश लंबे समय से कर रहा है।

समवर्ती सूचि में होने की वजह से संवैधानिक रूप से शिक्षा राज्य और केंद्र दोनों के हिस्से में है। नीतिगत निर्णयों में दखल देने, सर्व शिक्षा अभियान (अब समग्र शिक्षा) जैसी केन्द्रीय योजनाओं के अलावे केंद्र सरकार के पास केंद्रीय विद्यालय, एकलव्य विद्यालय, नवोदय विद्यालय जैसे गिनती के कुछ स्कूल ही चलाने है आज देश की बड़ी आबादी राज्य सरकारों द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों में ही पढ़ती है, जिसपर अधिकतर खर्च राज्य के ही जिम्मे होते हैकेंद्रीय करों में राज्यों की साझेदारी 32 से बढ़कर 42 प्रतिशत हो चुकी है देश की आर्थिक क्षमता भी लगातार बढ़ रही है। उस हिसाब से शिक्षा बजट की राशि भी बढ़ी है। आर्थिक समीक्षा के आंकड़ों के मुताबिक़ राज्य व केंद्र के कुल बजटीय व्यय में शिक्षा की हिस्सेदारी देखे तो वर्ष 2014-15 से 2019-20 के बीच वह लगभग दोगुनी बढ़ी है और यह 3.54 लाख करोड़ से बढ़कर 6.43 लाख करोड़ हो गई है। लेकिन शिक्षा पर होने वाला औसत खर्च बीते 5 वर्षों में आज भी कुल बजट के 10 प्रतिशत के आसपास ही है। जीडीपी के हिसाब से सोचे तो शिक्षा पर होने वाला व्यय 3.1 प्रतिशत है, जो वर्ष 2014-15 में 2.8 प्रतिशत था। जीडीपी के 6 प्रतिशत हिस्से को शिक्षा पर खर्च करने की बात लंबे अरसे से हो रही है। नए भारत के सपने को साकार करने के लिए शिक्षा पर होने वाले खर्च को हर हाल में बढ़ाना ही होगा। इसे विदेशी निवेश अथवा विश्व बैंक के कर्जे के भरोसे नही छोड़ा जा सकता।

संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत प्रयास कर रहा है। स्कूली शिक्षा की पहुँच बढ़ी है। नामांकन लेने वाले बच्चें भी बढ़े है। लेकिन बात जैसे ही सरकारी स्कूलों की होती है, अपवाद छोड़ चित्र बदहाल बेहाल सरकारी स्कूलों के ही सामने आते है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराना तो राष्ट्रीय प्राथमिकता का विषय होना ही चाहिए, लेकिन आधुनिक समय की जरुरतों के हिसाब से सरकारी स्कूलों को आधारभूत संरचना से लैस करना अत्यंत आवश्यक है ताकि बुनियादी सुविधाओं से कोई स्कूल वंचित न रहे। अभी भी देश के कई हिस्सों से ख़बरें आती रहती है कि बच्चें और शिक्षक सुविधाओं के अभाव में पढ़ने-पढ़ाने के काम में कई तरह की मुश्किलें झेल रहे है। ये स्थिति कतई सुखद नही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक लाख स्कूलों के भवन बेहतर बनाने के लिए ऑपरेशन कायाकल्प शुरु किया है। ऐसे प्रयास बाकी राज्यों में भी किए जाने की आवश्यकता है। स्कूलों के लिए एकीकृत सुचना प्रणाली (यू-डीआईएसई) के 2017-18 के आंकड़ों की माने तो देश में अभी 14.85 लाख प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालय है, वही 1.24 लाख उच्च माध्यमिक विद्यालय चल रहे है। वर्ष 2011-12 में ये संख्या क्रमशः 11.93 लाख व 84 हजार ही थी। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा शुरु किए गए सर्व शिक्षा अभियान जरिए प्राइमरी शिक्षा तो देश में सर्वसुलभ हुई है। लाखों नए स्कूल इस अभियान के जरिए खुले। आवश्यकता माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालयों की अधिक है ताकि बच्चों के लिए उच्च शिक्षा के द्वार खुल सकें। ग्रामीण इलाकों में बच्चों को, विशेषकर बेटियों को काफी दुरी तय करके स्कूलों में जाना पड़ रहा है। यह एक दुष्कर कार्य है। शायद यही वजह है कि मिडिल स्कूल के बाद बड़ी संख्या में बच्चें आगे की पढ़ाई नही कर पाते। 

वर्ष 2017-18 के भारत में शिक्षा पर घरेलू सामाजिक खपत के प्रमुख संकेतों पर राष्ट्रीय सर्वेक्षण (एनएसएस) रिपोर्ट की माने तो शिक्षा प्रणाली में लोगों की भागीदारी बढ़ी है। लेकिन यही रिपोर्ट बताती है कि 3 से 35 वर्ष की आयु वाले 13.6 प्रतिशत लोगों ने कभी स्कूल में नामांकन नही करवाया। जो नामांकित भी हुए उनमें प्राइमरी स्कूलों से ड्रापआउट होने वाले 10 प्रतिशत लोग थे। मिडिल के स्तर पर यह आंकड़ा 17.5 प्रतिशत था जबकि 19.8 प्रतिशत ने माध्यमिक स्तर पर ही स्कूल छोड़ दिया था। 10 वर्षों के बाद ऐसी स्थिति न रहे, इसके लिए ध्यान देकर अभी से कार्य करना होगा।जो स्कूल चल रहे है, उन स्कूलों में आलिशान ईमारत बनाने की बात छोड़िये, वहां बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हो, इस दिशा में अब बड़ी तेजी से काम होना चाहिए। जैसे हर स्कूल में शौचालय का होना ताकि बच्चें, विशेषकर बेटियां स्कूल आ सकें। देश के नीति नियंताओं का ध्यान इस तरफ गया तो लाखों स्कूल शौचालय युक्त हो गए लोकसभा की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ें की माने तो 2,61,400 स्कूलों में 4,17,796 शौचालय का निर्माण केवल एक वर्ष (15 अगस्त, 2014 से लेकर 15 अगस्त, 2015) में किया गया। आर्थिक समीक्षा के रिपोर्ट की माने तो वर्ष 2017-18 तक देश में 98.38 प्रतिशत सरकारी प्राथमिक स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था थी, जबकि 96.23 प्रतिशत स्कूलों में लड़कों के लिए शौचालय थे। यह आंकड़ा बढ़ा होगा लेकिन इसे 100 प्रतिशत करना और इन्हें इस्तेमाल करने लायक बनाए रखना सर्वोच्च प्राथमिकता में रहनी चाहिए। शौचालय का अभाव अथवा गंदे या बंद पड़े शौचालय स्कूली शिक्षा के लिए कतई हितकर नही है। ये बीमार ही नही, बच्चों को अनुपस्थित रहने के लिए मजबूर भी करते है। स्वस्थ भारत के तहत स्वस्थ स्कूल बनाने के लिए स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार जैसे प्रयास प्रशंसनीय है। इसे और बढ़ावा देने की जरुरत है।

U-DISE के ही आंकड़ों की बात करें तो 97.13 प्रतिशत स्कूलों में पेयजल की सुविधा है। पहाड़ी इलाकों में पीने का पानी आसानी से उपलब्ध नही है। स्वयं इसे मध्य प्रदेश के वनवासी बहुल इलाकों में काम करते हुए देखा है। वही दूसरी ओर बुंदेलखंड सहित देश के कई हिस्सों में आज भी स्कूलों के हैंडपंप से निकला पानी पीने योग्य नही है। देश के नौनिहालों को साफ़ पीने का पानी मिले, इस हेतु स्वास्थ्य व शिक्षा विभाग द्वारा हर राज्य में विशेष अभियान चलाए जाने की जरुरत है। इस कदम से न केवल साफ़ पानी बच्चों की पहुँच में होंगे, बच्चें स्वस्थ होंगे बल्कि पानीजनित बिमारियों से भी बचाव संभव हो सकेगा।


सुरक्षा की दृष्टि से स्कूलों में चारदीवारी भी आवश्यक है। हालांकि भौगौलिक परिस्थितियों की वजह से कई जगह पारंपरिक तरीके से चारदीवारी बनाना कठिन है लेकिन महज 58.88 प्रतिशत स्कूलों में चारदीवारी की सुविधा का होना एक चिंता का विषय होना ही चाहिए। ग्रामीण इलाकों में चारदिवारी के अभाव में स्कूल की संपत्ति का भी बहुत नुकसान होता है। पंचायती राज विभाग को साथ लेकर हर स्कूल और वहां के बच्चों को सुरक्षित बनाने के लिए चहारदीवारी बनाने का काम तीव्र गति से होना चाहिए।वैसे समय में जब खेलों के प्रति देश में रुचि बढ़ रही है, महज 56.72 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान उपलब्ध है। स्कूली बच्चों के बीच खेल को प्रोत्साहित करने हेतु मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय को 5000, उच्च प्राथमिक के लिये 10,000 एवं माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्कूलों के लिये 25,000 रुपये खेलकूद के उपकरण खरीदने के लिए मुहैया कराए गए है। वही खेलो इंडिया अभियान जैसे अभियानों के तहत केंद्र व स्कूली खेल-कूद को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार अपने स्तर से कई कोशिशें कर रही है। लेकिन केवल वार्षिक खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन से ही काम नही चलेगा। प्रतिभाशाली बच्चों को उनकी रुचि के खेल में आगे बढ़ने हेतु जरुरी सुविधा और प्रत्येक ब्लॉक स्तर पर खेल को बढ़ावा देने पर भी ध्यान दिया जाना अत्यंत आवश्यक है। इसे ओलंपिक में मैडल की संख्या बढ़ाने की राष्ट्रीय मुहिम से भी जोड़ा जा सकता है।

आर्थिक समीक्षा में एक और आंकड़ा चौकाने वाला थावर्ष 2017-18 तक देश के 79.30 प्रतिशत स्कूलों में ही पुस्तकालय की सुविधा थी। ‘पढ़ेगा भारत- बढ़ेगा भारत’ के तहत लगभग 10 लाख स्कूलों में पुस्कालयों की स्थिति में सुधार लाने के लिये केंद्र सरकार ने 5,000 से लेकर 20,000 रुपये तक का पुस्तकालय-अनुदान दिया है। इससे स्थिति सुधरेगी। लेकिन वर्ष 2021 के अंत तक हर विद्यालय में बेहतर पुस्तकालय हो, इसके लिए मिशन मोड में काम करना चाहिए। 21वीं सदी में कोई भी स्कूल बिना पुस्तकालय के चले, ये सही स्थिति नही हो सकती। पुस्तकालय की बात चली तो अच्छे व सस्ते बाल साहित्य का घोर अभाव है। निजी प्रकाशन में छपने वाले किताब ग्रामीण बच्चों के मनोस्थिति को न समझ पाते है, न ही ऐसे महंगे किताब आसानी से उपलब्ध होते है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास जैसे सरकारी संगठनों के जरिये केंद्र को अधिक से अधिक अच्छे व सस्ते पुस्तक छपवाने और उसकी पहुँच स्कूलों तक बढ़ाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम होने चाहिए।

देश-दुनिया में बात अब ब्लैकबोर्ड की वजाए डिजिटल बोर्ड की हो रही है। 2019 में शुरु हुए ऑपरेशन डिजिटल बोर्ड के तहत केंद्र सरकार 7 लाख स्कूलों में तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए डिजिटल बोर्ड भी लगाने के अभियान में जुटी हुई है। वही दूसरी ओर आज भी देश में बड़ी संख्या में ऐसे स्कूल है, जहाँ अब तक बिजली की सुविधा नही पहुंची है। आंकड़े बताते है कि वर्ष 2017-18 तक महज 61.75 प्रतिशत स्कूलों में ही बिजली की सुविधा है। केंद्र की आकांक्षी जिला कार्यक्रम के तहत देश के 115 पिछड़े जिलों में माध्यमिक स्तर के स्कूलों में बिजली कनेक्शन पहुंचाने का काम बड़ी तेजी से हुआ है लेकिन बहुत सारे प्राइमरी स्कूल आज भी अछूते ही है। सभी स्कूलों में बिजली की सुविधा हो, इसके लिए विशेष पहल अवश्य होनी चाहिए।  प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूल बच्चों से किसी भी तरह के शुल्क नही लेते। इस वजह से स्कूलों को अपनी वित्तीय जरुरतों को पूरा करने के लिए सरकार की तरफ ही देखना पड़ता है। अभी हाल में समग्र शिक्षा के तहत देश के सभी स्कूलों में बुनियादी जरुरत को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा 25 हजार से लेकर 1 लाख तक की धनराशि मुहैया कराई गयी है। बच्चों की संख्या के आधार पर यह राशि प्रत्येक वर्ष मुहैया कराने का निर्णय स्कूल को अपनी छोटी-बड़ी जरुरतों को पूरा करने में सहयोगी सिद्ध होगी। लेकिन यह पर्याप्त नही है। राज्य व केंद्र सरकार को स्वयं के स्तर से एवं सामाजिक सहभागिता बढ़ाते हुए स्कूलों को इस हद तक आर्थिक रुप से सक्षम बनाना होगा जिससे कि वे अपनी जरुरतों को पूरा कर सकें और बेहतर शिक्षा का माहौल स्कूल में बना सकें। राजस्थान का भामाशाह मॉडल स्कूलों के विकास हेतु सामाजिक सहयोग को बढ़ाने की दिशा में एक बेहतर राष्ट्रीय प्रयोग साबित हो सकता है। समाज आगे आकर स्कूलों की चिंता करें तो इसमें हर्ज क्या है!

स्कूली शिक्षा के साथ काम करते हुए एक बड़ा अनुभव ये भी रहा है कि सरकार बेहतर शिक्षा के लिए अपने हिसाब से प्रयास तो कर रही हैं, लेकिन इन प्रयासों में समाज की भूमिका गौण है। एक राष्ट्रीय भाव का अभाव दीखता है। देश के अधिकतर स्कूलों के बनने में बढ़ चढ़कर आगे रहनी वाली पीढ़ी के वंसज पुनः एकजुट हो नौनिहालों की फिक्र करें, स्कूलों को समृद्ध करने में सरकार के साथ एकजुट हो जाए तो स्थिति बदलते देर नही लगेगी। बच्चों के लिए ये हमें करना ही होगा!