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September 10, 2013

क्रांति चौक का मौन क्रंदन .....अस्तित्व की तलाश में छात्र राजनीति

आज़ादी के 66 वर्षों बाद भी भारतीय लोकतंत्र वंशवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धनबल, बाहुबल, योग्य नेतृत्व की जगह मुखौटे का इस्तेमाल कर राज करने जैसे जिन मजबूत आधारस्तंभों पर टिका दीखता है, उसकी एक इकठ्ठी झलक हमें देशभर में होनेवाले छात्र संघ चुनावों में देखने को मिल जाती है! होना तो कायदे से यह था कि छात्र संघ चुनाव भारतीय लोकतंत्र की आदर्श अवधारणा को दर्शाती! उसे मजबूत करने का भरोसा दिलाती! लेकिन छात्र राजनीति भी उसी राह पर चलती दिखाई पड़ती है, जिसपर मुख्यधारा की राजनीति! यह कहना गलत नही होगा कि सारी बुराईयाँ इसमें समाहित हो चुकी है!


दुर्भाग्य तो यह है कि देश का प्रतिष्ठित छात्र संघ चुनाव भी इससे वंचित नही है! जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय ने छात्र संघ की इज्जत को थोड़ा बहुत बचा रखा है, अन्यथा बाकी जगहों से निराशा ही दिखाई देती है. स्वाभाविक है, दिल्ली विश्वविद्यालय भी इससे अछूता नही है!

हर वर्ष की तरह इस बार भी दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) का चुनाव होने जा रहा है. स्वाभाविक है, इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय ‘राजनीति के नौसिखुए’ नेताओं की मौजूदगी से चमक दमक रही है. कही रेन डांस पार्टी, तो कही मुफ्त में फिल्म दिखाने, सैर सपाटे कराने का दौर जारी है. विचारवान और वर्ष भर सक्रीय रहने वाले संगठनों को छोड़ दें तो थोड़े दिनों में उजले कपड़ों में घूमते, पैसे लुटाते, दारू-शराब बांटते भविष्य के नेताओं की पौध हँसते-खिलखिलाते, हाथ मिलाते, परिसरों में वोट के लिए दौड़ते-भागते दिखने लगेंगे! वादों का पिटारा खुलेगा! आरोप-प्रत्यारोप का बाज़ार गर्म रहेगा! चुनाव समाप्त होते ही कुछ दिनों तक हारने वाले बेचैनी महसूस करेंगे! जीतने वाले अखबार, टीवी पर थोड़े दिनों तक छाने के बाद वैसे ही गायब हो जाएंगे, जैसे अमूमन देश के नेतागण गायब होते है!

दिल्ली विश्वविद्यालय में होनेवाले छात्र संघ चुनाव की पुरे देश में चर्चा होती है. यहाँ मिली जीत-हार के मायने निकाले जाते है. राजनीतिक विश्लेषकों का तो यहाँ तक मानना है कि इस चुनाव में मिली हार या जीत से मुख्यधारा की राजनीति पर भी प्रभाव पड़ता है. कुछ वर्ष पहले तक दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र वोट डालने के इस पहले लोकतांत्रिक पर्व में न केवल बढ़ चढ़कर भाग लेते रहे है बल्कि देश के कोने कोने से आनेवाले छात्रों का प्रतिनिधित्व करनेवाली डूसू में अपने पसंद के प्रतिनिधि को जिताकर देश-समाज से जुड़े मुद्दे को पूरी जबाबदेही और गंभीरता से उठाते भी रहे है. भला कौन भूल सकता है अनेक आंदोलनों के केंद्र क्रांति चौक को, जो लोकतंत्र की गला घोटने वाली आपातकाल  के ख़िलाफ न केवल ऐतिहासिक संघर्ष की हृदयस्थली बनी बल्कि इसने पुरे देश में जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन को एक निर्णायक दिशा भी दी थी!  बिना अवरोध के लगातार अस्तित्व में बने रहने वालें डूसू ने न केवल छात्र राजनीति बल्कि  देश के राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्रों में भी अपनी पहचान छोड़ी है. राजनीति के शिखर पर बैठे अजय माकन, अरुण जेटली, कपिल सिब्बल, विजय गोयल जैसे लोग राजनीति के इस लौन्चिंग पैड (डूसू) की ताकत का एहसास दिलाते है.

लेकिन अब क्रांति चौक की आवाज़, अपने हक़ के लिए क्रांति के स्वर नहीं गुनगुनाती बल्कि छात्र राजनीति की सजी चिताओं पर बैठकर क्रंदन करती नज़र आती है!  डूसू चुनाव में पिछले वर्ष जिस तरह अन्ना आन्दोलन और भ्रष्टाचार के मुद्दे के बीच कांग्रेस समर्थित छात्र संगठन की जीत हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया कि डूसू का न तो कोई विचारधारा है, न ही व्यक्तिगत तौर पर विचारधाराओं से कोई सरोकार बचा है! जब पूरे देश में चार वर्षीय पाठ्यक्रम का विरोध बुद्धिजीवी और छात्र कर रहे थे, उस समय डूसू मौन रहा! इससे पहले ऐसी ही चुप्पी सेमेस्टर सिस्टम के मामले में भी दिखी! यहाँ तक कि छात्र विरोधी फैसले विश्वविद्यालय लगातार लेता गया, लेकिन डूसू ने कभी विरोध की जुर्रत नही की! समझना कठिन नही कि डूसू की राजनीति का न तो छात्रों से जुड़े मुद्दों में कोई दिलचस्पी बची है और न ही डूसू के सिद्धांतों में निष्ठा!  

डूसू की राजनीति की बात करे तो  यह दिल्ली विश्वविद्यालय के मात्र 49 कॉलेज का प्रतिनिधित्व करता, जिसमे सेंट स्टीफेंस, लेडी श्रीराम कॉलेज, जीसस मेरी, दौलतराम जैसे महत्पूर्ण कॉलेज सहित अनेक विभाग शामिल ही नहीं है.  गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय लगभग 3 लाख छात्रों का प्रतिनिधित्व करता है. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासनिक  अधिकारिता में 77 महाविद्यालयों के अलावा 4 पीजी सेंटर, 8 सम्बद्ध संस्थाओं, 5 मान्यता प्राप्त सहित 90  से ज्यादा विभाग, जिसमे स्नातोकोत्तर की पढाई वालें केंद्र भी शामिल है, आते है. स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग(SOL) दिल्ली विश्वविद्यालय में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जहाँ लगभग 2.50 लाख विद्यार्थी पढ़ते है. लेकिन डूसू इन सबका प्रतिनिधित्व न तो प्रत्यक्षतः करता है और न ही अप्रत्यक्षतः. सीधे शब्दों में कहे तो डूसू सम्पूर्ण डीयू का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता. डूसू के चुनाव में केवल 30-35 फीसदी मतदान होते है.  ऐसे में  मुश्किल से 10,000 के आस पास वोट पाकर डूसू की सत्ता पर काबिज़ होने वालें नेता  दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का प्रतिनिधित्व करते है!

यहाँ के चुनाव में पिछले 12 -13 सालों से कुछ ही मुद्दे लगातार दुहराए जा रहे है जिन्हें नारों,    पर्चे-पोस्टरों के माध्यम से वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी पर भी जगह नही दी जाती है! उसे बस मीडिया और छात्रों के बीच पहुँचने पर पुराने गीत की तरह बड़ी मासूमियत के साथ दुहराए, गाए जाते है.  बस पास सभी बसों में मान्य हो, मेट्रों में रियायती पास दी जाये, हॉस्टल की संख्या बढाई जाए, सेफ कैम्पस, छात्राओं की सुरक्षा जैसे कुछ चंद मुद्दे है, जो हर वर्ष चुनावी घोषणा पत्र की शोभा बढ़ाने को मौजूद रहते है. लेकिन उनपर साल भर कुछ ठोस नही होता. ऐसे में लगता है कि  देशभर के विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व करनेवालें डूसू के चुनावी घोषणा पत्र भी राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों की तरह हो गए जो सिर्फ वादे ही करते है, वह उन्हें निभाने, पूरा करने में अपनी शक्ति और दिमाग नहीं लगाना चाहती.

दिल्ली विश्वविद्यालय में समस्यायों का अंबार है, जिनसे विद्यार्थी लगातार जूझ रहे है. दिल्ली के बाहर से बड़े-बड़े सपनों को लेकर लाखों विद्यार्थी डीयू में पढाई करने आते है. नामांकन से पढ़ने का स्वप्न तो पूरा हो जाता है, लेकिन उसे यहाँ रहने की जद्दोजहद करनी पड़ती है. अपने को शीर्ष पांच केन्द्रीय विश्वविद्यालय में गिनती करवाने के बाबजूद डीयू 10 प्रतिशत छात्रों के रहने हेतु छात्रावास उपलब्ध नहीं करवा पाया है. छात्रावासों के अभाव में किसी तरह अपना कॉलेज जीवन बिताने को मजबूर छात्रों की वेदना को  किसी भी डूसू पदाधिकारी ने आजतक समझने को काबिल नहीं समझा. बड़े बड़े वादें करके छात्रों को लुभाने व उनके वोट बटोरने वालें किसी डूसू पदाधिकारी ने कभी भी किसी इलाके में बढ़ते रूम रेंट, मकान मालिकों की प्रताड़ना के ख़िलाफ अपनी आवाज़ बुलंद नहीं की.

अधिकांशतः डीयू में हिंदी प्रदेशों के विद्यार्थी नामांकन लेते है जिनमे से अधिकतर हिंदी भाषी होते है और ग्रामीण या छोटे शहरों से संबंध रखते है. जब ये विद्यार्थी अपनी पढाई डीयू में प्रारंभ करते है तो सबसे ज्यादा दिक्कत भाषा को लेकर होती है. पुस्तकालयों में हिंदी विषय की किताबे ही हिंदी में मिल पाती है. अन्य विषयों की पुस्तकें ज्यादातर अंग्रेजी में ही होती है. मुसीबतों का पहाड़ तब टूट जाता है जब कक्षा में भी अंग्रेजी के ही लेक्चर सुनने पड़ते है. ऐसी समस्या से महज कुछ चंद विद्यार्थियों को सामना नहीं करना पड़ता बल्कि ये संख्या हजारों में है. छात्रों के प्रतिनिधि के नाते डूसू इस समस्या के समाधान हेतु कुछ कर सकता था. मसलन, पुस्तकालयों में हिंदी की किताबें उपलब्ध करवाने, भाषा विकास केंद्र खुलवाने, कॉलेज/विभागों में ट्यूटोरियल क्लास लगवाने इत्यादि. लेकिन इसके एक भी उदहारण नहीं दीखते.

यह हाल सिर्फ डूसू का ही नही, बल्कि वर्तमान में अमूमन देश भर के छात्र संघों की है. कुछ अपवाद होंगे, लेकिन अधिकांश की स्थिति ऐसी ही है. अब लगता है जैसे आदर्श छात्र संघ गुजरे ज़माने की बात हो गयी, जब छात्र हितों में निष्ठा, नेतृत्व करने की योग्यता छात्र संघ पदाधिकारी बनने की पात्रता थी. इस आधार पर बने पदाधिकारी छात्र हितों के लिए न केवल संवेदनशील थे बल्कि उसके लिए लम्बी लडाई का माद्दा  भी रखते थे. परन्तु विद्यार्थियों के समाधान के केंद्र जब मात्र राजनीति के प्रवेश द्वार का जरिया बनकर रह जाए तो छात्र राजनीति से विश्वास टूटता है! आज की युवा पीढ़ी अगर राजनीति से घृणा करने जैसी बात करती है तो उसके कारणों में छात्र संघ चुनाव व चुनावों के दौरान होनेवाली मनमानापन गुंडागर्दी भी है.

असलियत तो यह है कि मुद्दाविहीन, दिग्भ्रमित और व्यक्तिगत स्वार्थों पर आधारित छात्र संघ की राजनीति से अधिकांश छात्रों की रूचि समाप्त हो गयी है. विगत वर्षों में हुए चुनावों का ब्यौरा उठाया जाए तो यह स्पष्ट दिखता है कि लगातार वोट देने वालों छात्रों की  संख्या घटती चली जा रही है.

ये हालत दुखद है कि देश, समाज सहित छात्र-हितों से जुड़े मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाने वाला केंद्र  अब मौन दीखता है. प्रतिरोध चापलूसी और स्वार्थ के गीत गाती है. बीते वर्षों में छात्र राजनीति के स्तर को देखे तो लगता है जैसे छात्र हित और छात्र, दोनों से सरोकार ख़त्म हो गए है. टिकट पाने से लेकर चुनाव जीतने के तरीको को देखकर लगता है मानों भारतीय लोकतंत्र संसद से लेकर शैक्षणिक परिसर तक अपने जिन्दा रहने की जद्दोजहद कर रहा है. अब वह बीते ज़माने की बात हो गई जब डूसू  देश, समाज और छात्रों से जुड़े विषयों को लेकर मुखर रहता था, प्रतिरोध के स्वर का प्रतिनिधित्व करता था. अब तो कोई कोई गंभीरता ही नहीं दिखती. सिर्फ औपचारिकता बची है!

छात्र संघ के सिद्धांतों के विपरीत बने ये हालात और छात्र राजनीति की ऐसी दुर्दशा अचानक नहीं हुई बल्कि इसकी बुनियाद पुरानी है. छात्रों के वाजिब मुद्दों से परे जाकर जबसे चुनाव होने शुरू हुए, तबसे छात्र संघ राजनीति के क्षरण का सिलसिला शुरू हो गया. ग्लैमर, पैसे, जाति जैसे-जैसे छात्र संघ की राजनीति में अपनी छाप छोड़ना शुरू किया, वैसे वैसे छात्र राजनीति अपनी पहचान खोती गयी.

देश का युवा चाहता है, छात्र संघ चुनाव की भूमिका राजनीति चमकानेदारू पिलाने, फ़िल्में दिखाने, गाड़ी पर घुमाने जैसी बातों से हटकर छात्रों के समस्या समाधान का केंद्र बने. छात्र संघ छात्र समस्यायों के लिए निर्णायक संघर्ष करनेवालें नेताओं के कारण जाना-पहचाना जाए. छात्र संघ और छात्र राजनीति का जीवंत होना न केवल छात्रों के लिए बल्कि देश के सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य को एक सही दिशा देने का भी काम करेगा! ऐसे समय में जबकि देश में बड़े पैमाने पर व्यवस्था परिवर्तन को लेकर बहस चल रही है, वैसे समय में इस परिवर्तन की शुरुआत डूसू चुनाव से ही शुरू की जानी चाहिए. इसकी दरकार छात्र राजनीति को ज़मीनी तौर पर जिन्दा रखने के लिए बहुत जरुरी है. अगर ऐसा नहीं होता तो इसी तरह  दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव दिल्ली की संकीर्ण जातिवादी-क्षेत्रवादी राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा.

दिल्ली विश्वविद्यालय सबका है, इसलिए सबकी अभिलाषा भी डूसू के गर्व लौटते देखने में ही है. उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि पिछले डूसू पदाधिकारियों की राह पर न चलते हुए इसबार निर्वाचित होनेवाला डूसू चार वर्षीय पाठ्यक्रम सहित अन्य मुद्दों को लेकर चुप रहने की वजाए छात्र-हितों के लिए वर्ष भर सकिय रहेगा!  साथ ही साथ डूसू राजनीतिक सुधार की प्रयोग भूमि भी बनेगा ताकि देश को आदर्श छात्र संघ की नजीर पेश हो सकें!

1 comment:

  1. जानकारीपूरक पोस्ट! अच्छी पहल

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