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February 22, 2015

भूमि अधिग्रहण विधेयक: नीयत व नीति स्पष्ट करे मोदी सरकार


#LandAcquisitionAct पर जारी बहस को लगभग डेढ़ महीने से देख-सुन रहा हूँ! नई सरकार के Ordinance को भी पढ़ा! कई बार तो ऐसा लगता है कि यह बहस कुछ वैसा ही है, जैसा भारत में कंप्यूटर लांच करते वक़्त चला था- लोग बेरोजगार हो जाएंगे, मशीने आदमी की जगह ले लेंगे आदि आदि. हो सकता है, ऐसी बातें विकास की राजनीति का समर्थक होने की वजह से लगता हो लेकिन यह मसला ऐसा है, जिसमें कोई भी आशंका तबतक फिजूल की नही मानी जा सकती, जबतक कि सरकार अंतिम रूप से अपनी नियत व नीति स्पष्ट तौर पर न बता दे. अभी उहापोह की स्थिति बनी हुई है कि क्या अध्यादेश में बदलाव किए जाएंगे या फिर वह बिना बदलाव के ही हुबहू सदन की पटल पर लाए जाएंगे. कारण बहुतेरे है लेकिन वर्तमान हालात तो ऐसा ही लगता है कि सरकार इस बात को बता पाने में अभीतक असफल रही है कि आखिर वह इतना बड़ा बदलाव बिना किसानों के हितों को नुकसान पहुंचाएं कैसे करेगी? हो सकता है, किसान विरोधी होने का ठप्पा लगने की डर से इसका जबाब वह आने वाले दिनों में दें. जबतक कोई जबाब नही आता है, शंकाएं बरकरार रहेगी. 


फिलहाल इस विधेयक के पक्ष में विरोध के स्वर तो खूब उठ रहे है. विरोधी सरकार को सीधे कठघरे में खड़ा कर रहे है, जनता के बीच जा रहे है, रैलिया कर रहे है लेकिन मूल समस्या की जड़ तक पहुँच पाने व ग्रामीण विकास को लक्ष्य करके की जाने वाली इस कोशिश का विकल्प वे नही दे पा रहे है. यह महज संयोग ही कहा जाएगा कि बिल के ज्यादातर विरोधी लोग या दल वही है जो राजनीतिक तौर पर वर्तमान सरकार में शामिल दल या व्यक्ति के विरोधी है. भारत में एक परंपरा सी है, जिसमें विपक्षी दलों के द्वारा हर बात का विरोध करना एक प्रकार की राजनीतिक मज़बूरी जैसी होती है. भाजपा उससे अछूती नही है. आधार को लेकर विपक्षी भाजपा के शोर-शराबे से लेकर सत्तासीन भाजपा की चुप्पी जगजाहिर है. खैर, अभी बिल के विरोधीयों के तर्कों में जाए तो ऐसा लगता है, जैसे सरकार देश के हर किसान, हर गाँव की ज़मीने उद्योगों के हितों के लिए अधिग्रहित करनेवाली है. साथ ही इस अधिग्रहण की प्रक्रिया में किसानों से बंदूक के जोर पर ज़मीने जबरदस्ती छीन ली जाएगी. भट्टा-परसौल और नंदीग्राम देखने के बाद देश में इस स्थिति की कोई कल्पना भी नही कर सकता. ऐसा कतई नही लगता, केंद्र सरकार ज़मीनी स्थितियों से वाकिफ नही होगी कि ऐसी कोई स्थिति बनी तो न केवल तत्काल मिट्टी पलीद हो जाएगी बल्कि राजनीतिक रूप से वनवास भी झेलना पड़ेगा. दशकों के शासन को बंगाल की जनता एक झटके में उखाड़ फेंकती है तो ये कौन वीर बजरंगी है, जो अकेले लड़ने का दुस्साहस भी जुटा पाए.

प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक में आपत्ति के दो विषय है- (१) रक्षा और राष्ट्रीय महत्व के अलावे ग्रामीण बिजली, ग़रीबों के लिए घर और औद्योगिक कॉरीडोर जैसी महत्वकांक्षी परियोजनाओं हेतु ज़मीन अधिग्रहण करते समय प्रभावित किसानों में से 80 फ़ीसद लोगों के सहमति की आवश्यकता नहीं होगी. (२) इन मामलों में भूमि अधिग्रहण से पहले समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन हेतु की जाने वाली Social Impact Assessment की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी गई है....यह दोनों फैसले क्या सोचकर लिए गए, इसकों लेकर जबरदस्त विरोधाभास की स्थिति है. सरकार विकास को लेकर अपनी प्रतिबद्धता की दुहाई देती हुई कह रही है कि हम पूर्ववर्ती कानून की मूल भावनाओं में बिना किसी छेड़छाड़ किए ज़मीन अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया में होनेवाली अनावश्यक विलंब को समाप्त करना चाहते है. वही विरोध करनेवाले इसे किसान विरोधी बताते हुए यह तर्क दे रहे है कि सरकार को इसमें खुली छुट मिल जाएगी कि वह जब चाहे, जहाँ चाहे ज़मीन अधिग्रहित कर ले...प्रस्तावित बिल में पुराने बिल की तरह यह स्पष्ट किया गया है कि इसमें न तो मुआवजा देने के प्रावधानों में फेरबदल किया गया है, न ही बहुफसली ज़मीने अधिग्रहित की जा सकेगी. लेकिन बिल के विरोधी तर्क देते है कि एकफसली ज़मीनों की जद में तो लगभग आधे से ज्यादा किसान आ जाएंगे, जिससे छोटे किसानों की ज़मीने छीन जाएगी. कौन सही कह रहा है, कौन झूठ, तय कर पाना मुश्किल है. साथ ही इसको लेकर जनता में एक असमंजस की स्थिति पैदा होने की स्थिति बन रही है.  

गाँव में कृषि पर निर्भर लोग चाहते है कि उनकी आर्थिक स्थिति सुधरे, कृषि कार्यों को करना दुश्कर न लगे, फसलों की उचित कीमत मिले, नुकसान से होनेवाली क्षति को देखते हुए फसलों की बिमा हो. इसके साथ ही उनकी आकांक्षा है कि उनके गाँव का विकास हो, रोजगार के नए अवसर पैदा हो, बिजली की समस्या दूर हो. वे चाहते है कि उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलें, उनके परिवार को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं नजदीक में सस्ती सुलभ हो. ग्रामीणों को बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शहरों पर ज्यादा निर्भर न होना पड़े. 

देश का दुर्भाग्य है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी गाँव जरुरी सुविधाओं के लिए तरस रहे है. अगर कोई सरकार इन अपेक्षाओं को, इन जरुरी आवश्यकताओं को पूरा करने की ईमानदार कोशिश करना चाहती है तो इसके लिए नए ढ़ांचे तो तैयार उसे करने ही पड़ेंगे. जाहिर सी बात है, ढ़ांचा खड़ा करने का यह काम पड़ोसी देशों की ज़मीन हड़पकर या आसमान में तो नही ही किए जा सकते. इसके लिए ज़मीन तो चाहिए ही. ज़मीन लिया जाएगा तो स्वाभाविक है कि उस ज़मीन की कुर्बानी किसी ज़मीन के मालिक व उसके परिवार को ही देनी पड़ेगी. यह कोई नई स्थिति तो देश में पैदा नही ही हुयी है, जिसमें लोगों से ज़मीन लिए जा रहे है. आजतक जो भी सरकारी या नीजी ढ़ांचे तैयार हुए है, वह ज़मीन किसी न किसी किसान की ही थी.

स्वयं गाँव से हूँ! किसान का बेटा हूँ. आज भी गाँव वालों के बीच में ही हूँ. इतना तो पता ही है, क्या स्थितियां है गांवों की. खेत बंजर पड़ रहे है. सामर्थ्यवान लोग किसी तरह खेती करवा ले रहे है, बाकी लोग कृषियोग्य भूमि में पेड़ लगा दे रहे है. गाँव दिन-ब-दिन उजड़ रहे है. किसी भी गाँव में चले जाए, अधिकांश जगह आजकल महिलाएं या बूढ़े लोगों की संख्या ही असली जनसँख्या है, जो गाँव में रहती है. छोटे किसान आज खेती को नुकसान का धंधा मानते है. आज कृषि कार्य करना छोटे किसानों के लिए मुश्किल होता जा रहा है. उन्हें मजदुर नही मिलते क्यूंकि नरेगा में बिना काम किए लोगों को एक ही तालाब को साल में चार बार खोदने और भरने का काम मिला हुआ है. बैल की जगह ट्रेक्टर ले लेगा, गोबर की जगह यूरिया, पोटास ले लेगा लेकिन उस ट्रेक्टर को चलाने वाला, उस खाद को खेत में छींटने वाला भी तो चाहिए. आज अधिकांश वही लोग गाँव में है जो लोग पढ़-लिख नही पाए, बाहर जाने की स्थिति में नही है, आस-पड़ोस में ही रोजगार मिली हुई है. युवापीढ़ी अच्छी शिक्षा व रोजगार के लिए गाँव से बाहर शहरों की तरफ लगातार पलायन कर रहा है. सामाजिक, आर्थिक वजहों से बहुत कम किसान है जो अपने संतानों को किसान बनता देखना चाहते है. वे चाहते है कि उनकी संताने पढ़-लिखकर या फिर शहरों में अच्छी रोजगार पाकर सुखी से रहे, इज्जत की जिन्दगी की जिए.

वही दूसरी ओर आज भी अधिकांश गाँवों के लोग बुनियादी जरूरतों के अभाव तले जीने को मजबूर है. टीवी और अख़बार के इस युग में कौन चाहता है कि गाँव में डिबरी या लालटेन के तले अपनी रात गुजारे! अच्छी चिकित्सा की वजाए झाड़-फूंक से अब कोई गाँव का अनपढ़ भी जान जोखिम में नही डालता. गाँव को मॉल नही चाहिए, वहां के लोगों को जरुरी सुविधाएं चाहिए. फसलों की उचित कीमत चाहिए. खेतीयोग्य ज़मीनों पर फसले लहलहाएं, इस हेतु सलाह, सहयोग और सामर्थ्य चाहिए. यह कैसे आएगा? कैसे उनके विकास का खाका खिंचा जाएगा, जिसमें फायदे में सिर्फ जनता रहे?

सवाल है, विकास की रौशनी से वंचित देश के बड़े तबके की सहयोगी सरकार कैसे बने? एक भी व्यक्ति गरीब है, अभाव में जी रहा है तो जिम्मेवारी सरकार की होती है. वर्तमान समय में सरकार के पास इतना सामर्थ्य है नही कि वह जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकें. उसे नीजी निवेश की जरुरत है. निवेशक अपनी फायदे को सर्वोच्च वरीयता देते है. ऐसे में निवेशकों के हितों के साथ साथ देशहित भी सधे, अभावों से मुक्त भारत बने, इसको लेकर प्रस्तावित बिल में सरकार की मंशा क्या है, यह बात अस्पष्ट है, जिसे सरकार को समझाना पड़ेगा. मुझे लगता है, भूमि अधिग्रहण को लेकर जो शंकाएं है, उसपर केंद्र सरकार को पूरी साफगोई से अपनी नीयत स्पष्ट तरीके से बताने के साथ साथ इस अधिग्रहण से जुड़ी अपनी भावी नीतियों को लेकर पारदर्शी रवैया अपनाने की जरुरत है! आदतन विकास के हर प्रक्रिया के विरोधीयों को जबाब देने के साथ साथ सरकार को जनता को सीधे संवाद करके यह बात बतानी चाहिए कि कैसे उसका प्रस्तावित कदम किसानों व गांवों के हित में है, कैसे सरकार Pro-Industry की वजाए Pro-Development agenda को लेकर आगे बढ़ रही है जहाँ उद्योगों का हित बेलगाम स्वार्थ की सीमाएं न लांघकर न्यूनतम मुनाफे में अधिकतम सेवाएं दे सकेगी. सहमती लेने अथवा न लेने के पीछे उसके क्या तर्क है, जो किसान हित में है.  सामजिक आंकलन न करवाने के पीछे सरकार का क्या तर्क है. इसे चिन्हित करने के तरीकों को लेकर स्पष्ट बताने की जरुरत है कि कौन सी ज़मीने अधिग्रहित की जाएगी, आदि आदि.

मेरी राय में देश में लगभग अनुपयोगी बंजर, बाढ़-सुखाड़ ज़मीने काफी मात्रा में है, जहाँ विरले लोग कुछ उपजा पाने की स्थिति में होते है तथा जिसमें लागत मूल्य के बराबर भी फसले उपजाई जा सकें. ऐसी ज़मीनों का अधिग्रहण ज्यादा ठीक रहेगा. ऐसी ज़मीने जहाँ बड़ी मात्रा में है, वहां special economic zone बनाई जा सकती है. ऐसी ज़मीन देने को किसान उचित व त्वरित मुआवजा देने के साथ साथ पुनर्वास की व्यवस्था करने पर सहर्ष राज़ी भी हो जाएंगे. ज़मीन अधिग्रहित करने के तरीकों को लोकतांत्रिक बनाए रखने को लेकर भी स्पष्ट तौर पर जरुरी प्रावधान किए जाने की जरुरत है. जन संवाद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार, विशेषकर प्रधानमंत्री को आगे बढ़कर पहल करनी पड़ेगी.  


मसला किसान का है, लगभग दो तिहाई आबादी का है, उसके विकास से जुड़ा है लिहाजा सबकी तरह हमारी भी नज़र है. विकास और राजनीतिक विरोध के बीच सामंजस्य बैठा पाना बड़ा दुश्कर कार्य है. देखना है, मोदी सरकार इसके बीच कैसे संतुलन बैठा पाती है. ऐसा तो नही है कि किसान के नामपर विपक्षी केवल राजनीति व सरकार स्वार्थनीति की राह पर चल रही है है, जिसमें अंततः नुकसान किसान को ही होने की आशंका है? स्थितियां कुछ ऐसी ही बनती दिखाई दे रही है. उम्मीद बस यही है कि राजनीति और स्वार्थनीति दोनों देशहित में हो, जो ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल पाने में सहयोगी बने.

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