अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर
दिल्ली लौटा तो मालूम चला, फिर से मुन्ना बेघर हो गया! वैसे भी
उसे पेड़ और दीवारों के सहारों पर टिके, प्लास्टिक से ढके और
फुटपाथ पर अपने प्रतिदिन बननेवाले घर में कभी सुकून की जिन्दगी जीने का मौका नही
मिला होगा! लेकिन पुलिसिया डंडे के जोर पर उसे पिछले दिनों अपने ठिकाने बदलने पर
मजबूर होना पड़ा! मुन्ना का बस इतना सा जुल्म है कि वह ईमानदारी और मेहनत से अपना
जीवन जीना चाहता है. स्वाबलंबी बनने की चाहत उसे यूपी से दिल्ली खिंच लाई लेकिन
अनपढ़ होने की वजह से जब कोई दूसरा काम करना उसे नही सुझा तो भाड़े पर रिक्शा लेकर
चलाना शुरू कर दिया. उसने फुटपाथ को अपना ठिकाना बनाया और अपने सुखद भविष्य की आस
लिए अपने जीवन की कहानी बुनने में लग गया. वह दिन में काम करता था और रात में थोड़ी
सी जगह घेरकर फुटपाथ पर सो जाता था. लेकिन अफ़सोस! सड़कों की सुन्दरता के सामने उसकी
मजबूरियों को कोई तवज्जो नही मिली! पिछले दिनों उसे उजाड़ दिया गया.... उसके सपनो
सहित! लेकिन उसने अभी हार नही मानी है! वह फिर से एक नए ठिकाने की तलाश में निकल
पड़ा है!
दिल्ली विश्वविद्यालय के
दौलतराम कॉलेज के बगल में बने फुटपाथ पर रहनेवाले और रात में नियमित तौर पर लॉ
फैकल्टी के साथियों को अपने कमरे तक पहुँचाने वाले लगभग 25 वर्षीय मुन्ना को हमने
कभी निराश, हताश नहीं देखा! मुन्ना के लिए संविधान की किताब में लिखे अनु. 14 और 19 ज्यादा मायने नही रखते जो समानता और स्वतंत्रता की बात तो करता है लेकिन फुटपाथ पर भी जीने नही देता. ऐसे न जाने कितने
मुन्ना की कहानी अनकही, अनसुनी है, जिनके
अपने कोई ठिकाने नहीं होते बल्कि उनके हिस्से बस उजड़ना, उजड़
के बसने की कोशिश करना, फिर उजड़ना और ऐसे ही उजड़ते, बसते, बिखरते दुनिया से रुखसत हो जाना लिखा है!