April 30, 2019

दांव पर है केजरीवाल की राजनीति



दिल्ली से सटे गौतम बुद्ध नगर लोकसभा सीट से घोषित आम आदमी पार्टी की प्रत्यासी सविता शर्मा का नामांकन रद्द हो गया. कारण था आप उम्मीदवार जरुरी 10 प्रस्तावक भी नही जुटा पाई. यह वही सीट है, जहाँ पिछले लोकसभा सीट में आप उम्मीदवार को लगभग 32358 वोट मिले थे. ऐसा भी नही था कि सविता शर्मा कोई सामान्य "आम आदमी" थी. सविता एक कॉलेज प्रोफेसर थी, लम्बे समय से आप से जुड़ी थी.

सविता शर्मा का मामला दरअसल लोकसभा चुनाव-2019 में आप के राजनीतिक भविष्य की तस्वीर दिखाती है कि कैसे पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी की बराबरी कर रहे केजरीवाल इस बार के चुनावी मैदान में खुद तो लड़ने की हिम्मत नही जुटा पाए, पार्टी भी अपनी राजनीतिक वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही है.

दिल्ली पर ही है नज़र 

पिछले चुनाव में देशभर में अपने उम्मीदवार उतारने वाली पार्टी केवल दिल्ली, पंजाब, हरियाणा सहित लगभग 30 सीटों पर ही इसबार मैदान में है. पिछले चुनाव में 4 सांसद देनेवाले पंजाब में हालत पहले से ख़राब है. इसलिए आप का पूरा ध्यान दिल्ली पर है क्योंकि उसे पता है कि दिल्ली के बाहर उसे कोई सीटें मिलने नही जा रही. वही दिल्ली में पिछली बार की तरह इसबार भी जीरो पर आउट हुए तो पार्टी के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा. फिर अगले वर्ष होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में दुबारा जीतकर आने की रही-सही संभावनाए भी उसकी समाप्त हो जाएगी.

दिल्ली में खाता खुलवाने की यही बेचैनी आप में इतनी है कि वह अपनी धुर-विरोधी रही कांग्रेस से समझौता करने के लिए मिन्नते करती नज़र आई. कांग्रेस से जब गठबंधन करने की तमाम कोशिशें असफल रही तो आप के आगे मन मारकर सभी सीटों पर अकेले ही लड़ने के सिवाए कोई चारा नही बचा था. अभी हालत ये है कि कहने को तो दिल्ली में त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा है लेकिन आप का पूरा चुनावी प्रचार ईस्ट दिल्ली सीट के इर्द-गिर्द ही घूम रही है. आप को केवल इसी सीट से उम्मीदें बंधी है और इसे जीतने के लिए वह तमाम हथकंडे अपनाते नज़र आ रही है.

बीतें लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक जमानत जब्त करवाने वाली पार्टी बनी थी आप  

2014 के चुनाव के समय आप की लोकप्रियता शिखर पर थी. मोदी-विरोधी मीडिया के एक खेमे ने न केवल आम आदमी पार्टी को भाजपा के समकक्ष खड़ा कर केजरीवाल को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया था बल्कि स्वयं केजरीवाल ने भी खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार जताते हुए पुरे देश भर में अपने उम्मीदवार उतार दिए थे. जानकार आश्चर्य होगा कि बसपा और कांग्रेस के बाद सबसे अधिक उम्मीदवार आम आदमी पार्टी के ही थे. जहाँ बसपा के 503 उम्मीदवार लोकसभा चुनाव के मैदान में थे, वही कांग्रेस ने अपने 464 उम्मीदवार उतारे थे. रोचक बात ये है कि लोकसभा चुनाव-2014 में अंततः विजय पाने वाली भाजपा ने अपने केवल 428 उम्मीदवार ही उतारे थे.

आप ने जो 432 उम्मीदवार उतारे थे, उनमें से केवल 19 की जमानत बची, बाकी 413 उम्मीदवार केजरीवाल को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान में जीतना तो दूर अपनी जमानत भी नही बचा पाए. शहरी स्थानों पर टीवी और अख़बारों का फुटेज खाने और माहौल बनाने के बावजूद भी आप दिल्ली और लुधियाना को छोड़कर कही भी 10% वोट भी नही हासिल कर पाई. केजरीवाल के प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावना की ज़मीनी हालत ऐसी थी कि आप को मिले कुल मतों का 53.3% दिल्ली, पंजाब, चड़ीगढ़ के 21 सीटों पर मिले मत थे, बाकी के 411 सीटों पर उसे केवल 46.7% मत ही मिले. यानी औसतन 14000.

MCD चुनाव के सदमे से उभरी नही है आप

दिल्ली नगर निगम(MCD) चुनाव में मिली हार का सदमा भी आप का साए की तरह पीछा कर रही है. विधानसभा चुनाव-2015 में 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आप को दो वर्ष हुए नगर निगम चुनावों में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था. MCD के चुनाव में आप को केवल 49 सीटें ही मिली थी. वही 10 साल से MCD पर राज कर रही भाजपा को 272 सीटों में से 181 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव में कांग्रेस को 31 सीटें मिली थी. बीतें नगर निगम चुनावों से इस परिणाम की तुलना करें तो परंपरागत रूप से भाजपा-कांग्रेस के बीच होने वाले पिछले चुनाव से भाजपा को जहाँ 43 सीटें अधिक मिली थी, वही कांग्रेस को 46 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा. MCD में भाजपा की यह जीत काफी बड़ी मानी जाती है. एक दशक के एंटी-इंकमबेंसी था, वही दूसरी तरफ प्रचंड बहुमत से बैठी आप सरकार. लेकिन सभी जीते हुए उम्मीदवारों को बदल कर भाजपा चुनाव लड़ी और चमत्कारिक जीत से तीनों नगर निगमों पर उसका कब्ज़ा है.

आप के चुनावी मुद्दें में दम नही

आप दिल्ली में इस बार पूर्ण राज्य की दर्जा के मांग के साथ चुनावी मैदान में उतरी है. आप नामांकन वापसी के दिन तक कांग्रेस से गठबंधन की आस में लगी रही. गठबंधन की इन कोशिशों से आप के चुनावी अभियान को काफी नुकसान झेलना पड़ा. दिल्ली की जनता के नज़र में पहले ही अपना विश्वास खो चुकी आप को सामान्य लोगों ने शक की निगाह से देखना शुरू कर दिया. पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग भी दूर-दूर तक न तो चुनावी मुद्दा बनती नज़र आती है, न ही जनता के बीच में इसे कोई सीरियस मुद्दा मानने को तैयार है. सबको पता है कि यह मांग किसी भी हाल में पूरा होने वाला नही है. दिल्ली को पूर्ण राज्य देने का मतलब है देश की राजधानी को कही और ले जाना जो किसी भी हाल में संभव नही है. दरअसल पूर्ण राज्य के मांग के जरिये केजरीवाल जनता को यह समझाने की कोशिश कर रहे है कि बगैर पूर्ण राज्य के दिल्ली का विकास संभव नही है और हर मर्ज की दवा पूर्ण राज्य का दर्जा ही है. यही वजह है कि दिल्ली की जनता के लिए किये अपने कार्यों की वजाए आप अपने काम न करने की मज़बूरी के नामपर दिल्ली का वोट लेना चाहती है. कायदे से आप को अपने किये कार्यों को बताना चाहिए. वह अलग बात है कि बीते 4.5 वर्षों के शासन में वह अपना एक भी चुनावी वादा पूरा नही कर सकी है.

अब ऐसे समय में, जबकि दिल्ली का चुनाव बेहद नजदीक है, हर पार्टी चुनावी मैदान में वोटरों को रिझाने में जुटी है, आप के लिए यह चुनाव करो या मरो जैसी स्थिति सा है. कांग्रेस अपनी खोई ज़मीन दुबारा पाने के लिए संघर्ष कर रही है, वही आप आंदोलन से उपजी संवेदनाओं के बल पर पाई लोकप्रियता को बचाने की जद्दोजहद करती नज़र आ रही है. कांग्रेस के लिए तो फिर भी बाकी के राज्यों में कुछ संभावनाएं बची है, आप के लिए दिल्ली के सिवा कुछ नही. देखना है इस महत्वपूर्ण चुनाव में आप बची रह पाती है या फिर झाडू आप की ही राजनीति को साफ़ कर देती है.

April 29, 2019

दिल्ली की फेक शिक्षा-क्रांति

“आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में शिक्षा क्रांति लाई.”- यह दलील देते हुए आपको हर आम आदमी पार्टी का कार्यकर्त्ता ही नही, केजरीवाल की राजनीति को समर्थन करने वाले कथित बुद्धिजीवी भी मिलेंगे. 

क्या है वास्तिविकता इस शिक्षा क्रांति की, आईये इसे दिल्ली सरकार द्वारा किये गए भारी-भरकम खर्च और उसके आये परिणामों को स्कूलों में नामांकन, लर्निंग आउटकम, शिक्षकों की स्थिति के नजरिये से समझने की कोशिश करते है-


बात शुरू करते है आप द्वारा हाल में जारी किये गए घोषणापत्र से, जिसमें उसने शिक्षा से संबंधित अपनी उपलब्धियों के साथ साथ उन बातों का जिक्र किया है कि जिसे वे पूर्ण राज्य के दर्जे मिलने के बाद करेंगे. लोकसभा चुनाव आप पूर्ण राज्य के मुद्दे पर ही लड़ रही है. आप के घोषणापत्र में शिक्षा से संबंधित पृष्ठ इस बात से ही शुरू होता है कि “आम आदमी पार्टी के लिए शिक्षा महत्वपूर्ण मुद्दा है. दिल्ली सरकार का शिक्षा बजट 26% है, जो देश के बाकी राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा है.”

अब यहाँ पर कुछ बातों को समझना बहुत जरुरी है.

क्या दिल्ली सरकार का बजट पहली बार बाकी राज्यों की तुलना में सबसे अधिक है या पहले भी ज्यादा हुआ करती थी? शिक्षा के लिए सबसे अधिक बजट आवंटित करने के पीछे की वजह क्या है?



इससे पहले की हम यह जाने कि वास्तविकता में दिल्ली सरकार कितना खर्च कर रही है शिक्षा पर, यह समझना बहुत जरुरी है कि दिल्ली के पास धन अधिक है और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने की वजह से खर्च करने का क्षेत्र सिमित.  वर्ष 2018-19 में दिल्ली का प्रति व्यक्ति आय 365529 है, जो कि राष्ट्रीय औसत 125397 से 3 गुना अधिक है. दिल्ली का Revenue Surplus भी 2017-18 के दौरान Rs 4,913 करोड़ था. वही देखा जाए तो देश के कई बड़े राज्य भारी कर्ज में डूबे है, जिनकी आय से अधिक उनका खर्च रहता है.

दूसरी बात, आप द्वारा हमेशा यह प्रोजेक्ट किया जाता है कि हमने सबसे अधिक धन शिक्षा के लिए आवंटित किया, जो कभी नही हुआ. यह पूरी तरह गलत है. अतीत में कई ऐसे राज्य है, जिन्होंने अपने कुल बजट का 20 से 30 फीसदी शिक्षा के लिए आवंटित किये है. असम और बिहार का वर्ष 2000-01 का आंकड़ा देखे तो इन्होने क्रमशः 25 और 23.7 फीसदी शिक्षा के लिए आवंटित किये. मेघालय जैसे छोटे से राज्य ने जरुरत पड़ी तो वर्ष 2014-15 में अपनी बजट का 27.8 फीसदी शिक्षा पर खर्च किया.असलियत में दिल्ली में हमेशा शिक्षा के लिए अधिक बजट आवंटित करने का जो ट्रेंड पिछली सरकार की थी, आप उसे ही फॉलो कर रही है.  दिल्ली का बजट वर्ष 2000 से लेकर अबतक औसतन 15 फीसदी से हमेशा अधिक ही रहा है, आप ने उस ट्रेंड को आगे बढ़ाया. बजट बढ़ाने से आज स्थिति ये है कि 2012-13 में जहाँ  प्रति विद्यार्थी खर्च 29,641 रुपया था, वह 2016-17 में बढ़कर 54,910 और 2017-18 में 61,622 हो गया.  इसके बावजूद यह दिल्ली के Gross State Domestic Product (GSDP) के हिस्से में 2% से भी कम है. यानी दिल्ली की हैसियत के हिसाब से बजट आवंटन में भले बढ़ोतरी हुई हो, GSDP के आंकडें लगभग समान ही रहे है. 



तीसरी बात, आम आदमी पार्टी ने बजट भाषण में भले ही शिक्षा का बजट अधिक दिखलाया, लेकिन वास्तविकता में खर्च बेहद कम किये.  दिल्ली सरकार ने शिक्षा के लिए आवंटित बजट में 2014-15 में 62%, 2015-16 में 57%, 2016-17 में 79% ही खर्च कर पाई, बाकी के पैसे खर्च ही नही हुए. अगर आंकड़ों में बात करें तो जहाँ 2014-15 में 387.07 करोड़ खर्च नही हुए, वही यह राशि वर्ष 2015-16 में 1,000.73 करोड़ और 2016-17 में 981.45 करोड़ थी.  आप हर साल बजट में 25-26% बताती है, लेकिन Revised Budget में यह आंकड़ा कम हो जाता है. 




अगर पिछले वित्तीय वर्ष के आंकड़े देखे तो वे साफ़-साफ़ दर्शाते है कि कागज पर दिखाए आंकड़ों की असलियत कुछ और ही है. जनवरी, 2019 में शिक्षा के लिए आवंटित राशि की हालत देखिये 





स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार की डरावनी असलियत

घट रहे है नामांकन, शैक्षणिक गुणवत्ता में भी नही हो रही कोई सुधार  

केवल बजट ही नही, घोषणापत्र में आप ने यह दावा किया है कि पिछले चार सालों में दिल्ली सरकार ने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार किये है.

पिछले 4 सालों में इस क्रन्तिकारी सुधार का असलियत यह है कि हर वर्ष सरकारी स्कूलों में नामांकन घट रहे है. वही सीखने का स्तर और वार्षिक परीक्षाओं के परिणाम में भी इसका कोई असर नही दिख रहा.

नामांकन


बात अगर नामांकन की करे तो दिल्ली में प्रतिवर्ष नामांकन की संख्या में घटोतरी देखि जा सकती है, जहाँ 2013-14 से 2017-18 के बीच 1,32,138 विद्यार्थी कम हो गए. शिक्षा-क्रांति का असर साफ़ देखा जा सकता है कि इस अवधि में 8% की गिरावट नामांकन में आई. 2014-15 बैच में कक्षा-7 के 97% बच्चें जहाँ अगले वर्ष अर्थात 2015-16 में कक्षा-8 में गए, लेकिन जब सत्र 2016-17 में जब ये कक्षा 9 में गए तो सत्र 2017-18 तक आते आते इनकी संख्या 55% कम हो गयी. यानी 3,11,824 में से केवल 1,38,829 बच्चें ही कक्षा-10वीं में जा सकें. समझना कठिन नही है कि दिल्ली सरकार के स्कूलों में बड़ी संख्या में बच्चें आगे की पढ़ाई से वंचित हो रहे है. आंकड़े यही साबित करते है कि 9वीं में जहाँ आधे, वही 11 वीं में एक तिहाई बच्चें फेल हो गए ताकि सरकार अच्छा परिणाम दुनिया को दिखाकर वाहवाही लुट सकें.
  
दिल्ली सरकार द्वारा जारी किये गए Economic Survey(2018-19) की रिपोर्ट भी नामांकन में कमी की पोल तो खोलती ही है, यह बात भी बताती है कि दिल्ली के बच्चें सरकारी स्कूलों को छोड़कर प्राइवेट स्कूलों में जा रहे है. जहाँ प्राइवेट स्कूलों में हर वर्ष नामांकन बढ़ रहे है, वही दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में बच्चे हर वर्ष घट रहे है. देखिये रिपोर्ट का हिस्सा   
यहाँ पर यह भी बात गौर करने वाली है कि जहाँ दिल्ली की जनसँख्या बढ़ रही है, वहां नामांकन बढ़ने की वजाए घट रही है. चिंता की बात है कि ये बच्चें जा कहाँ रहे है. देखिये Economic Survey (2018-19) के आंकड़े-

 

स्कूलों से गरीब परिवारों के बच्चों को दूर करने की हो रही है साजिश 



यहाँ पर दो बातें जानना जरुरी है. पहली, दिल्ली सरकार बड़ी संख्या में बच्चों को सरकारी शिक्षा व्यवस्था से दूर करने में जुटी है, जहाँ एक बड़ी संख्या में बच्चों को 9 वीं से 12 वीं तक पहुँचने ही नही दिया जाता. दूसरी जो सबसे चिंताजनक है कि वह यह कि जो बच्चें फेल हो रहे है, उन्हें दुबारा मुख्यधारा से जुड़ने नही दिया जा रहा. उन्हें दुबारा नामांकन भी नही लेने देने जाता. आंकड़ों की बात अकेले केवल वर्ष 2018-19 में ही कक्षा 9 वीं से लेकर 12वीं तक में फेल हुए 66% यानी 155436 में से 102854 बच्चों को दुबारा नामांकन लेने ही नही दिया गया. 11वीं के 58%, 12वीं 91% और 9वीं के 52% बच्चों को नामांकन लेने से वंचित कर दिया गया. 

देखिये आंकड़े क्या बोलते है-

बीते दिनों अधिवक्ता अशोक अग्रवाल ने नामांकन लेने से वंचित किये बच्चों की बात दिल्ली हाई कोर्ट में पहुंचाई तब जाकर यह विषय लोगों के ध्यान में आया. दिल्ली सरकार के स्कूलों ने तब 10 वीं में फेल हुए 45,503 बच्चों को दुबारा नामांकन लेने से मना कर दिया था.

लर्निंग आउटकम

बात अगर लर्निंग आउटकम की करें तो दिल्ली का शैक्षणिक स्तर राष्ट्रीय औसत से बेहद कम है. Economic Survey (2018-19) के आंकड़े देखिये 



यही नही, सरकार द्वारा चलाये गए चुनौती कार्यक्रम के तहत कक्षा-9 में फेल हुए बच्चों को 'विश्वास समूह' के रूप में सीधे कक्षा-10 में पत्राचार कार्यक्रम के तहत शिफ्ट किया गया लेकिन इनमें से केवल 2% बच्चें ही सत्र 2016-17 में पास हुए. अब इस कार्यक्रम के बुरे हाल का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2017-18 में दिल्ली के सरकारी स्कूलों से ड्राप आउट हुए 1,72,995 बच्चों में से केवल 2,830 बच्चों ने ही यहाँ नामांकन लिया, जो कि केवल 2% है. आंकड़े बताते है कि बीते 5 वर्षों में पत्राचार के तहत पास होने वाले बच्चों का प्रतिशत केवल 4% रहा है. 

प्रजा फाउंडेशन के आंकड़े देखिये 


कक्षा-10 और 12 के परीक्षा परिणामों की बात करें तो दिल्ली में हुए कथित शिक्षा-क्रांति की न तो कोई छाप नज़र आती है, न ही कोई अप्रत्याशित परिणाम के कोई प्रसंग. उल्टे दिल्ली में 10वीं में पास करने वाले विद्यार्थियों का औसत 2016-17 के 92.44% से गिरकर वर्ष 2017-18 में 68.90% पर आ जाता है. आप सरकार की दलील रही है कि सीबीएसई पाठ्यक्रम लागू होने की वजह से परिणाम बिगड़े लेकिन वास्तविकता यही है कि हर वर्ष घटते हुए क्रम में ही परिणाम आ रहे है. और शायद यही वजह है कि बड़ी संख्या में बच्चों को 9वीं एवं 11 वीं में फेल किया जा रहा है, वही 10वीं एवं 12 वीं में फेल हुए बच्चों को दुबारा नामांकन देने से रोकने की व्यवस्था बनाई हुई है ताकि परिणाम अच्छा दिखा सकें. Economic Survey (2018-19) की रिपोर्ट देखिये -


पिछले वर्ष आप ने कक्षा-10 में आये ख़राब परिणाम की जिम्मेवारी नही ली, लेकिन पूरी पार्टी कक्षा-12 के परिणाम में मामूली सुधार का श्रेय लुटने में काफी आगे रही. कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख छपवाए गए. लेकिन वह यह हकीक़त छुपाने में कामयाब नही रह पाई कि बेहतर परिणाम आप सरकार के नकारात्मक प्रयासों का परिणाम ही है. 

आंकड़े इसकी गवाही देते है, जहाँ यह साफ़ समझा जा सकता है कि बड़ी संख्या में 9वीं एवं 11वीं में फेल किये बच्चों की वजह से परिणाम में आंशिक सुधार आये. द प्रिंट ने प्राइवेट स्कूलों को पछाड़ने के दिल्ली सरकार के झूठ का खुलासा अपनी रिपोर्ट में किया। आंकड़ा देखिये और अंदाजा लगाईये कैसे हर साल आधे बच्चों को फेल करके परिणाम सुधारे जा रहे है- 



प्रजा फाउंडेशन द्वारा जारी किये रिपोर्ट में आप इसकी भयावहता का अंदाजा लगा सकते है. 2014-15 में कक्षा 9वीं के 2,59,705 विद्यार्थी 2017-18 में 12 वीं तक पहुँचते पहुँचते केवल 1,14,176 ही रह जाते है. एक ही बैच के 1 लाख 45 हजार बच्चें शिक्षा-व्यवस्था से दूर हो जा रहे है, श्रेय शिक्षा-क्रांति को तो मिलना ही चाहिए. 

देखिये आंकड़े-


पढ़ाई के स्तर का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि केजरीवाल सरकार न केवल बोर्ड परीक्षाओं में बल्कि स्कुल स्तर के परीक्षाओं में भी कोई सुधार नही कर सकी है. इसकी झलक NDTV के इस रिपोर्ट में दिखती है कि भले ही सरकार शिक्षा-क्रांति करने का डंका पीट रही हो, लेकिन दिल्ली के सरकारी स्कूलों की हालत ये है कि 10वीं क्लास के प्री-बोर्ड परीक्षा में 70 फीसदी तक बच्चे फेल हो गए.

साइंस की पढ़ाई की व्यवस्था केवल 28% स्कूलों में 


RTI से मिली जानकारी से यह जानकारी मिली कि केवल एक तिहाई स्कूलों में ही साइंस पढ़ने की व्यवस्था है. वैसे समय में जबकि विश्वभर में विज्ञान की लोकप्रियता बढ़ रही है, दिल्ली के स्कूलों में पढ़ रहे एक बड़े वर्ग के लिए विज्ञान विषय पढ़ने की व्यवस्था ही नही.  

पढ़िए टाइम्स ऑफ़ इंडिया की ये रिपोर्ट 


शिक्षकों की बेहाल हालत   

टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 33,783 पद नौ विषयों के लिए  सृजित किये थे, जिनमें से 19243 पदों पर ही स्थाई नियुक्ति है, बाकि के लगभग 43% खाली पदों पर 8713 अस्थाई शिक्षक गेस्ट टीचर के रूप में नियुक्त है, बाकि के 17% पद खाली ही है. 

अगर दिल्ली सरकार के सभी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या की बात करें तो 6 मार्च को अपने एक प्रेस वार्ता में शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने ये जानकारी दी कि दिल्ली में शिक्षकों के 64,000 पदों में 58,000 पद स्थाई और गेस्ट टीचर से भरे हुए है, जिनमें से 22,000 गेस्ट टीचर है, जो अपनी मेरिट के आधार पर समय-समय पर निकाले जाने भर्ती सूचनाओं के जरिये नियुक्त किये गए है. 

लेकिन रोचक बात ये है कि जो अस्थाई शिक्षक दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहे है, उनकी गुणवत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीते महीनों शिक्षकों की नियुक्ति में शामिल 77% गेस्ट टीचर परीक्षा पास करने के लिए जरुरी न्यूनतम अंक भी नही ला पाए. इस परीक्षा में 21135 गेस्ट टीचर शामिल हुए, लेकिन इनमें से 16383 गेस्ट टीचर फेल हो गए. बड़ा सवाल है कि आखिर ऐसे शिक्षक दिल्ली के बच्चों को कैसी शिक्षा दे रहे होंगे. पढ़िए हाई कोर्ट में जमा किये गए जानकारी का हिस्सा 

  

केजरीवाल सरकार का मुस्लिम प्रेम जगजाहिर है लेकिन बात जब सरकारी स्कूलों में उर्दू शिक्षकों की आती है तो पता चलता है कि केवल 57 नियमित उर्दू शिक्षक है, जबकि कुल पद 1,028 है. उसी तरह केवल 112 पंजाबी शिक्षक नियमित रूप से बच्चों को पढ़ा रहे है, जबकि सृजित पद 1,023 है. 

इसी तरह दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए नियुक्त होने स्पेशल टीचर की संख्या भी बेहद कम है. 2017 से इन पदों को भरने की कोशिशें चल रही है, लेकिन 1,329 पदों में से केवल 26% पद ही भरे जा सकें है. (पढ़े रिपोर्ट) यह बताती है कि दिल्ली सरकार स्पेशल विद्यार्थियों के लिए बिल्कुल भी संवेदनशील नही है. 

यह जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली के 1024 स्कूलों में से 701 स्कूलों में कोई प्रिंसिपल ही नही है. ये सभी स्कुल अस्थायी प्रिंसिपल के भरोसे चल रहे है. जहाँ प्रिंसिपल है भी, वहां भी कई अन्य प्रकार की ड्यूटी करने में व्यस्त है.


इंफ्रास्ट्रक्चर

आप ने विधानसभा चुनाव के समय 500 नए स्कुल खोलने का वादा किया था. लेकिन इस वादे को वह सत्ता में 4.5 साल रहने के बावजूद भी 5% भी पूरा नही कर पाई जबकि दिल्ली सरकार के पास 82 प्लाट खाली है

एक RTI के मुताबिक पिछले 4 सालों में 23 नए स्कूल खुले दिल्ली में, जबकि वर्ष 2013-14 में 12 स्कूल खुले. 2014-15 राष्ट्रपति शासन का दौर था. जाहिर सी बात है, दिल्ली सरकार बड़े बजट के बावजूद विधानसभा चुनाव में किये वादों को आंशिक भी पूरा नही कर पाई. जिन 23 नए स्कूलों की बात की गयी, पूर्व शिक्षा मंत्री अरविंदर सिंह लवली की माने तो उनमे से 10 पिछली सरकार के समय की थी.


अपने घोषणापत्र में आप ने यह उल्लेख किया है कि "..... सभी बच्चों को शिक्षा का समान अवसर प्रदान करने के लिए जिस प्रकार के इंफ्रास्ट्रक्चर की जरुरत है, उसे पूर्ण राज्य के दर्जे के बगैर पूरा कर पाना संभव नही है. दिल्ली सरकार के पास ज़मीन और शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति करने का अधिकार न होना इसमें सबसे बड़ी रुकावट है."

अफ़सोस आप का पूर्ण राज्य न मिलने की वजह से इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी काम न होने के खोखले दावे की पोल उसके घोषणापत्र की पहली उपलब्धि में ही खुल जाती है. आप ने अपनी पहली उपलब्धि ही यह बताया है कि 2015 में दिल्ली सरकार में कुल 24157 कक्षाएं थी. तमाम रुकावटों के बावजूद दिल्ली सरकार ने 8213 नए क्लासरूम बनाये. नवंबर 2019 तक 12748 और नए नए क्लासरूम बनकर तैयार हो जायेंगे. आखिर जब इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी काम करने के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा ही जरुरी था, फिर ये नए क्लासरूम किसने बनाये? जाहिर है सरकार आधारभूत सुविधाएं मुहैया करवा सकती है. केवल नए क्लासरूम ही नही, आप के नेता जिन कुछ विद्यालयों की तस्वीर दिखाकर शिक्षा क्रांति होने का दावा करते है, वैसे चयनित 54 मॉडल स्कूलों में 250 करोड़ रुपये खर्च कर किया गया काम भी इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की ही श्रेणी में आता है. इन मॉडल स्कूलों में भी भ्रष्टाचार की कई गंभीर शिकायतें है. यह अलग बात है कि हजार स्कूलों को दरकिनार कर पब्लिसिटी के लिए केवल चंद विद्यालय चुने गए और सरकार इन्ही स्कूलों को दिखाकर वाहवाही लुटती है.  

अब बात करे नए कमरे बनने की तो ये संख्या भी विवादास्पद है. आप का दावा, सरकारी आंकड़े और विपक्ष द्वारा दी जा रही जानकारी मेल ही नही खाते. सरकार द्वारा जारी किये गए इकॉनोमिक सर्वे में बताया गया कि वर्ष 2018-19 में 8095 अतिरिक्त कक्षाएं बनी, जबकि आप ने अपने घोषणापत्र में यह संख्या अधिक (8213) बताया है यानी 118 अधिक. 

देखिये इकॉनोमिक सर्वे के आंकड़े, जिसमें इंफ्रास्ट्रक्चर विकास से जुड़ी जानकारी साझा की गई है-



वही बीते दिनों विजय गोयल ने 6 अप्रैल को एक प्रेस कांफ्रेंस कर यह दावा किया कि केजरीवाल द्वारा यह कहना कि 8000 कमरे हमने बना दिए, सरासर झूठ है। इनमें से हजारों कमरे कम्पलीट ही नहीं हुए और जो बने हैं वे बिना नक्शे के खेल के मैदान में बना दिए गए। यमुना विहार में गवर्नमेंट बॉयज सीनियर सैकेंडरी स्कूल जनकल्याण पोर्टा केबिन में चल रहा है। इसकी गैलरी में भी बच्चे बैठे हुए हैं। इसकी जो पुरानी बिल्डिंग बन रही है, जिसमें 40 क्लास रूम चाहिए, उसमें केवल 16 क्लास रूम बन रहे हैं। यहां एक पारी में 1300 बच्चे पढ़ रहे हैं, जहाँ केवल टॉयलेट सिर्फ एक ही है।

आप का चाहे जो भी दावा हो, यहाँ यह साबित हो जाता है कि इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना जरुरी नही. हाँ उसे जरुर जनता को बताना चाहिए कि बीते 4.5 सालों में केवल 8000 कमरे ही क्यों बनवा सकी, जबकि अभी वह अगले 6 महीने में 12000 से ज्यादा कमरे बनवाने का दावा कर रही है. इतनी रफ़्तार पहले से कहाँ गायब थी? कहना गलत नही होगा, आप पूर्ण राज्य की आड़ में अपनी विफलता छुपाने के लिए दिल्ली की जनता को झांसा दे रही है.