“मुँह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन,
आवाज़ों के बाज़ारों में, ख़ामोशी पहचानें कौन.”
अपने अज़ीज गज़ल गायक जगजीत सिंह के गाए इस गीत को पिछले कई वर्षों से सुनता आ रहा हूँ लेकिन सच पूछे तो इस गीत के पीछे छिपे भाव का मतलब हाल ही में समझ सका.
हुआ यूँ कि पिछले दिनों मुझे एक गाँव में रहने का मौका मिला. गाँव अंजान था. भाषाई दिक्कत्ते भी थी, जो गाँव के लोगों से बातचीत करने में रुकावट पैदा कर रही थी. ठंड से बेचैन मन सिर्फ स्थानीय भाषा न आने की वजह से सामान्य रिश्ते बनाने में आ रही कठिनाई से हैरान, परेशान था. करता क्या! चुपचाप घूमना, खाना और सोना, बस यही काम बचे थे.
एक दिन मै अपना मन बहलाने गाँव के बीचोबीच स्थित मैदान में चला गया. वहां लगभग दो दर्जन लड़के क्रिकेट खेलने में व्यस्त थे. खेल में मुझे भी शामिल कर लिया गया, जिसके बाद अपनी बैटिंग की प्रतीक्षा में मै बैठा हुआ था. उसी दौरान एक बच्चा मेरे पास आया. एक हाथ में गेंद था. खुशमिज़ाज शक्ल लिए वह मन ही मन मस्ती में झूम रहा था. वह शरीर से मजबूत, अच्छा कपड़ा पहने हुए और साफ़-सुथरे दिख रहा
था. स्वभाववश इस बच्चें को देखकर मेरे मन में भी उससे बात करनी की उत्सुकता जगी. इससे पहले की मै उसके पास जाता, अचानक से मैदान में मौजूद कई बच्चें उसकी तरफ लपके. कोई उसकी शर्ट खिंचने में तो कोई उसकी पैंट ढीला कर नंगा करने में लग
गए. यहाँ तक कि हाथ से मूंगफली के टुकड़े छिनने में भी कई लगे थे. मुझे लगा, शायद वह मजाकिया मिजाज का बच्चा है, इसीलिए सब ऐसा बर्ताव उसके साथ कर रहे है. लेकिन एक लड़के ने जब उसके हाथों से गेंद छिनकर एक कुएँ में फेंक दिया और वह रोने लगा तो मुझे लगा कि इस बच्चे की मदद तुरंत करनी चाहिए. मै उठा और उसके पास जाकर उसे तंग करने वाले गाँव के लड़कों को हटाया. ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया कि मेरी बात मानकर सबने उसे मेरे हवाले कर दिया. मानो शेर ने अपने जबड़े से किसी शिकार को छोड़ दिया हो!
उसके कंधे पर हाथ रखकर और पुचकारते हुए मैंने जब उसका नाम पूछा तो वह ठीक से बोल नही पा रहा था. तुतलाहट और उलझे आवाज़ में उसने “डोपाल” बताया. उसको अपने पास बिठाने की कोशिश की तो वह मेरे पीठ पर लिपटकर कूदने लगा. शायद संकट के समय साथ देने की ख़ुशी में वह पागल हुआ जा रहा हो. “तुम पढ़ाई करते हो?” इस सवाल का जबाब मुझे नही मिला. वह कुछ बोलने की कोशिश कर रहा था लेकिन मै उसे समझ पाने में असमर्थ था. इस वक़्त लगा कि शायद वह ठीक से बोल नही पा रहा है. “कही तुतलाहट तो वजह नही है?” यह सवाल जब वहां खड़े एक लड़के से पूछा तो उसने जो जबाब दिया उससे मै न केवल चौंका बल्कि उसकी परिस्थियों पर रोना सा आ गया. उसने कहा- “अभिषेक भैया, यह लड़का पागल है”. मै कभी उसको देख रहा था, कभी उन दृश्यों को याद कर रहा था, जब उसके साथ गाँव के लड़के मजाकिया मुड में दिख रहे थे. सोचा, अगर यह सचमुच में पागल है तो वह मजाक नही था. यह तो इसके साथ ज्यादती थी. पागल होने भर से किसी को तंग करने का लाईसेंस नही मिल जाता न!
उसे बच्चे के चाल-ढाल, उसके आवाज़ में मदद की गुहार थी. साथ निभाने की पुकार थी. भावनात्मक सहयोग की दरकार थी. लेकिन अफ़सोस मै तत्काल ही उसकी मदद कर सकता था, हमेशा नही.
इस घटना ने मुझे काफी सोचने पर मजबूर किया. अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे कई मित्र ऐसे भी है जो शारीरिक रूप से अपंग व दृष्टिहीन है, लेकिन बड़ी बहादुरी से प्रतिदिन आने वाली चुनौतियों का सामना करते है. तमाम परेशानियों के बावजूद भी खुश रहने की कोशिश करते है. लेकिन मानसिक रूप से विकलांगता के शिकार एक बच्चे की जिंदगी को बड़ी करीबी से देखने का यह पहला अवसर था.
दावा तो नही कर सकता लेकिन कमोबेश यही स्थिति भारत में रहने वाले सभी मानसिक विकलांगता के शिकार बच्चों की है. बहुत जलालत की जिन्दगी जीने को मजबूर होना पड़ता है. शहरों में पढ़े-लिखे, संपन्न परिवारों में जन्म लेने वाले मानसिक विकलांग बच्चों को विशेष चिकित्सीय व शिक्षा की सुविधाएं भी मिल जाती है. लेकिन गाँव में रहने वाले ऐसे अधिकांश बच्चे न केवल उपेक्षा, तिरस्कार का जीवन जीते है बल्कि समाज के लोग भी दयनीय बताकर इनको मुख्यधारा से अलग कर देते है. घुट-घुटकर जीना इनकी नियति बन जाती है. उनके दर्द, उनकी जरूरतों को समझने की वजाए समाज हीन दृष्टि से देखता है. अपने परिवारों के लिए एक तरह से वे बोझ से बन जाते है. समाज की बराबरी की जगह उनकी जिन्दगी बदतर बन जाती है। यह बात माना जा सकता है कि वे सामान्य लोगों की तरह जीवन नही जी सकते, लेकिन सम्मान का हक़दार तो कम से कम मनुष्य जाती में पैदा होने की वजह से जरुर मिलनी ही चाहिए. आखिर उनका क्या कसूर जो वह ठीक से बोल, समझ नही सकते.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के मुताबिक, भारत सरकार के अपने स्वास्थ्य बजट का मात्र 0.06 फीसदी ही मानसिक रोगियों के ऊपर खर्च करता है. पुरे देश में मात्र 4000 मनोचिकित्सक, 1000 मनोवैज्ञानिक और 3000 सामाजिक कार्यकर्त्ता ही है जो इन मानसिक विकलांगता के शिकार लोगों के लिए उपलब्ध है. यानी एक लाख लोगों पर केवल 0.3 मनोचिकित्सक ही है. यह प्रशंसनीय कार्य है कि सरकार ने विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और पूर्ण सहभागिता) अधिनियम(1995), विकलांगों के लिए राष्ट्रीय नीति (2006) का निर्माण तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की विकलांगों के लिए अधिकार सभा के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर(2007) करने जैसे कुछ कदम उठाकर ऐसे लोगों को समाज में सम्मान और आत्मनिर्भर बनकर जीने का अवसर मुहैया कराने की कोशिश की है लेकिन वह पर्याप्त नही है. आधुनिक तकनीको, चिकित्सीय सुविधाओं व संगीत के सहारे ऐसे बच्चों की जिन्दगी में बदलाव लाया जा सकता है, बस जरुरत है सरकार और समाज को मिलकर ईमानदारी से काम करने की.
कई बार जब मै सोचता हूँ कि ऐसे लोग कैसे अपना जीवन जीते होंगे, एक अजीब सी बेचैनी महसूस होने लगती है कि काश मै इनका मदद कर पाता और इन्हें इनकी जिंदगी किसी भी तरह से लौटा पाता. जब भी कभी किसी परेशानी या अभाव में खुद की जिंदगी से शिकायत होती है तो हमेशा प्रेरणा के लिए उन लोगों के चेहरे याद आते है, जो हर पल जिंदगी जीने को झुझते मालुम पड़ते है, लेकिन चुनौतियों से डटकर लड़ते रहते है और खुद के पैरों पर खड़ा होकर एक स्वाभिमानी जीवन जीने का स्वप्न बुनते रहते है. लेकिन दर्द की इन अनसुनी आवाजों के साथ यही ज्यादती होती है कि ज्यादातर लोग अक्सर सिर्फ जज़्बाती होकर, आँसू बहाकर और सहानुभूति जताकर अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर लेते है. लेकिन मैंने खुद से एक वादा किया है और दिली ख्वाईश भी है कि ईश्वर ने जितना भी सामर्थ्य दिया है, उसी में साधन, सुविधा, साहस और सहायता से संबल कर इनकी सेवा जरुर करूँगा. हम सबको ऐसा वादा करना चाहिए. 125 करोड़ के देश में कुछ हज़ार लोग भी अपना वादा निभाएंगे तो इनकी जिंदगी बेबस होकर नही, बेबाकी से जीते और बुलंद आवाज़ में बोलते हुए बीतेगी.
हाथों की उंगलियां भी नहीं होती एक जैसी,तो क्या हम उन्हें काट देते हैं।
ReplyDeleteजिस इंसान को नहीं समझते इंसान अपने जैसा,जाने क्यू उस अलग छांट देते हैं।