January 1, 2015

बलात्कार की समस्या के लिए जिम्मेवार कौन- समाज या सरकार ?



आज सुबह सुबह एक अख़बार में ऊबर कैब कांड की पीड़िता के बारे में पढ़ा. पीड़िता की कहानी दर्द, बहादुरी, समाज की मानसिकता सबका इकठ्ठा चेहरा दिखाती है. सच कहे तो ऊबर कांड पीड़िता हो या सुदूर किसी जंगल में उत्पीड़न की शिकार महिला, नाम बदलते है, लेकिन पीड़ा उतनी ही होती है. अफ़सोस! या तो ऐसी घटनाएं कुछ दिनों के बाद मानस पटल से गायब हो जाता है या फिर असल मुद्दे के समाधान की वजाए व्यक्ति केन्द्रित होकर रह जाता है. मीडिया के नेतृत्व में एक को न्याय दिलाने के लिए पूरा देश एकजुट हो जाता है. सरकारें सक्रीय हो जाती है. अंततः एक को मिले न्याय से ही समस्या के समाधान हो जाने का आभास कराया जाता है.


सरकार विरोधी नारे लगाते, दर्द और गुस्से से भरे जितने चेहरे जंतर मंतर, इंडिया गेट सहित देश के चौक-चौराहों ने 16 दिसंबर 2012 के बाद देखे, उतना स्वतंत्र भारत इतिहास में बहुत कम देखने को मिले होंगे. उस रात दामिनी के  साथ जो कुछ भी हुआ, वह ह्रदय विदारक था. उस घटना को किसी भी तर्कों के सहारे न्यायसंगत नही ठहराया जा सकता. दामिनी केस ने देश में महिला सुरक्षा की स्थिति को लेकर एक गंभीर बहस शुरू की,  जो अंततः एक प्रभावी कानून की शक्ल में हमारे सामने आया. लेकिन उस घटना के दों सालों बाद देश में बदला क्या? क्या कानून बनने से बलात्कार की घटनाएं होनी बंद हो गई? दामिनी को तो न्याय देर सवेर मिलना तय है, बाकियों का क्या होगा?

पिछले दिनों कुछ लोगों ने दामिनी दिवस मनाया. इस दिवस को मनाने वाले लोगों के प्रति कोई राग-द्वेष नही है, लेकिन हम कबतक एक घटना पर ही शोक जताते रहेंगे? बाकियों की सुध कौन लेगा?

आज सुबह से बहुत सारे सवाल मन में उठ रहे थे. कुछ तीखे है. कुछ अटपटा सा भी है. जैसे :        

(1) नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की माने तो वर्ष 2013 में 33,707 बलात्कार के मामलें हुए. इसी दौरान दिल्ली में 1636 घटनाएँ हुई. पिछले 15-20 सालों में लाखों भारतीय महिलाओं की अस्मत इंसानी दरिंदों ने लुट लिए, उनकी तो छोड़ ही दीजिए, क्या हम 2012-13 के दौरान बलात्कार की शिकार हुई सब पीड़िताओं के लिए "दामिनी दिवस" "निर्भया दिवस" जैसा कोई दिवस मनाते है? क्या हमें पता है कि बाकियों के मामलें में क्या हुआ?

(2) दामिनी केस के आरोपी दामिनी के परिचित नही थे. न ही दामिनी को वे पहले से जानते थे. लेकिन वर्ष 2013 में जितनी घटनाएं हुई, उसमें 94% आरोपी परिचित थे. आंकड़ों की बात करें तो 33,707 में से 31,807 घटनाओं में जान-पहचान वाले लोग ही थे, जिनमें पड़ोसी (10782), अन्य जानकार व्यक्ति (18171), सगे-संबंधी  (2315) और परिजन (539) शामिल थे. क्या सामाजिक संबंधों को लेकर देश में कोई बहस शुरू हुई? आखिर क्या वजह है कि अपने ही लोग हमारी अस्मत लुट रहे है?

(3) भारत में हर बलात्कार के पीछे विलेन के रूप में हम पुलिस का चेहरा पेश करते है. एक तरह से सारा दोष उसी के मत्थे मढ़ देते है. लेकिन हम इस तथ्य पर कभी विचार नहीं करते कि पुलिस विभाग में बहुत सारे पद खाली है. आकंड़ों की बात करें तो वर्ष 2012 तक भारत में सिविल पुलिस के कुल 1,70,2290 पद सृजित किए गए है, जिसपर 1,29,8944 नियुक्तियां हो चुकी है. बाकी लगभग 23 प्रतिशत पद खाली है. 22 जुलाई 2014 को लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जबाब में गृह राज्य मंत्री किरण रिज्जू ने भारत में प्रति एक लाख जनसँख्या पर 137 पुलिस के जवानों की तैनाती की जानकारी दी. संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि यह संख्या कम से कम 220 होनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के मानकों पर खरा उतरने के लिए कम से कम छ: लाख नियुक्तियां करनी पड़ेगी. गृह सचिव के एक बयान की माने तो अभी 20 हजार प्रतिवर्ष के हिसाब से पुलिस विभाग में नियुक्तियां हो रही है. यह क्रम जारी रहा तो कम से कम 40-50 साल लग जाएंगे. हम देशवासियों ने एकजुट होकर एक आंदोलन पुलिस विभाग की नियुक्तियों के लिए क्यों नही किया?  

(4) क्या देश में पुलिस व्यवस्था बलात्कार की बढ़ती संख्या का कारण है? यह सवाल ऐसा है जिसपर हम हमेशा भावुक होकर सोचते है. बलात्कार की घटनाएं जब भी होती है तो हम इस तरह से प्रतिक्रिया देते है जैसे इसका एकमात्र कारण पुलिसिया व्यवस्था में खामी है. निष्पक्ष होकर सोचे तो बलात्कार के मामलों में अकेले पुलिस को दोष देना ज्यादती होगी. आखिर पुलिस कैसे पता लगाएगी कि कौन सा व्यक्ति किस महिला के साथ कब बलात्कार करेगा? सामूहिक दुष्कर्म के मामलें में तो थोड़ा बहुत संभव भी है कि वह अपने मजबूत ख़ुफ़िया तंत्र की मदद से षड्यंत्र का पता लगाकार घटना को होने से रोक दें. लेकिन जहाँ दुष्कर्म का आपराधिक कृत्य किसी व्यक्ति विशेष द्वारा अंजाम दिया जाता है, उसे रोकना असंभव है. सार्वजनिक स्थानों, कार्यालयों, चौक-चौराहे पर कैमरा लगाया जा सकता है. वहां पुलिस की तैनाती की जा सकती है. हर घर या बस, ऑटो में ऐसा किया जाना संभव है क्या? क्या बलात्कार की घटना को होने से रोकने की जिम्मेवारी सिर्फ पुलिस की है, समाज की नही? आज भी कई जगहों पर लोगों की आँखों के सामने सबकुछ होते रहता है, लेकिन लोग चुप रहते है. क्या देश के नागरिकों ने कोई सामूहिक संकल्प लिया कि हम अपनी आँखों के सामने किसी लड़की की अस्मत नही लुटने देंगे?

(5) दुखद तथ्य तो यह है कि देश बलात्कार पीड़िता व उसके परिवार को सम्मान नही देता, वही बलात्कारियों के परिवार का जीना दूभर कर देता है. क्या देश भर में कोई आंदोलन महीनों चला, जहाँ समाज द्वारा बलात्कार पीड़ित महिलाओं का सम्मान सुनिश्चित करने की तो दूसरी तरफ बलात्कारियों का सामाजिक बहिष्कार करने की बात की गई? समझदारी की उम्र में पूत कपूत निकल गया, उसका दोष परिजनों व परिवारों के मत्थे मढ़ना क्या उचित है? जिस लड़की की इज्जत लुट ली गई, क्या उसे व उसके परिवार को हेय दृष्टि से देखा जाना उचित है? अफ़सोस हम इन सवालों का सामना नही करना चाहते.

(6) दिल्ली में बलात्कार की कोई घटना होती है तो पुरे देश में प्रतिक्रिया होती है. जगह जगह विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो जाता है. यह सच है कि 16 दिसंबर की घटना के बाद दिल्ली में बलात्कार की घटनाएं लगभग दुगुनी बढ़ गई है. दिल्ली में जहाँ वर्ष  2012 में 585 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए, वह 2013 में बढ़कर 1,441 हो गया. बाकी शहरों की बात करें तो इसी दौरान मुंबई में 391, जयपुर में 192 और पुणे में 171 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए. इस तरह देखा जाए तो दिल्ली में बाकी महानगरों के मुकाबले ज्यादा बलात्कार की घटनाएं हुई. लेकिन पुरे देश के परिप्रेक्ष्य में देखे तो आंकड़ा चौंकाने वाला है! दिल्ली में प्रति एक लाख महिलाओं में से 19 के साथ बलात्कार की घटनाएं हो रही है. लेकिन इतनी ही घटनाएं मध्यप्रदेश के जबलपुर में भी हो रही है. ग्वालियर में तो यह आंकड़ा 23 तक पहुँच जा रहा है. क्या कभी हमने इन शहरों में होने वाली घटनाओं को लेकर एकजुट हो आवाज़ उठाई?

राज्यों की बात करें तो वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा 4,335 बलात्कार की घटनाएं हुई. मध्यप्रदेश के बाद जिन राज्यों का क्रम आता है वे है राजस्थान (3285), महाराष्ट्र (3063) और उत्तर प्रदेश (3050). पुरे देश के आंकड़ों को इकठ्ठा देखे तो भारत में प्रतिदिन 93 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हो रही है. क्या हमारा ध्यान इस तरफ जाता है? क्यों हमें सिर्फ दिल्ली की घटनाएं याद रहती है, बाकी को भूल जाते है? देश के सुदूर हिस्सें में किसी आदिवासी, किसी दलित महिला के साथ कोई घटना होती है तो हम क्यों नही अपना विरोध जताते है? 

(7) भारत बलात्कार के मामलें में दुनिया में तीसरा स्थान रखता है. लेकिन बलात्कार की घटना को लेकर बाकी देशों की चर्चा शायद ही इतनी कभी हुई होगी, जितना भारत का. दामिनी केस के बाद भारत को पूरी दुनिया ने तो रेप कैपिटल कहा ही, हमने भी भारत सरकार को दोष देने में कोई कोर कसर नही छोड़ा. बलात्कार की घटना से निबटने में असक्षम बताते हुए सरकार विरोधी नारे लगाएं, खूब विरोध किया.

आंकड़ों की बात करें तो अमेरिका में सबसे ज्यादा बलात्कार की घटनाएं होती है. यूएन ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 31 करोड़ की आबादी वाले इस देश में वर्ष 2010 में 85593 बलात्कार की घटनाएं हुई. यानी प्रति एक लाख जनसँख्या में 27.3 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई. संख्या की दृष्टि से भारत की तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा. इसी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2010 में ही लगभग साढ़े 6 करोड़ की आबादी वाले इंग्लैंड में 15892 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई. इस तरह हम देख सकते है कि बलात्कार के मामले में अमेरिका पहले स्थान पर, वही इंग्लैंड चौथे स्थान पर है. जब दुनिया में सबसे ज्यादा मजबूत ख़ुफ़िया तंत्र व कड़े सुरक्षा प्रबंधों के लिए जाने जानेवाले देशों का यह हाल है तो भारत में जीर्ण-शीर्ण पुलिसिया तंत्र से हम क्या अपेक्षा रख सकते है. एक सिमित दायरे में ही पुलिस प्रभावी हो सकती है, पुलिस के भरोसे यह समस्या कभी समाप्त नही होगी. क्या हम इस तथ्य को स्वीकारते हुए बलात्कार की समस्या को संस्थागत समस्या न मानकर सामाजिक समस्या मानने को तैयार है?

हम सचमुच में बलात्कार की समस्या से निजात पाना चाहते है तो इन्हें समस्या के साथ जोड़कर देखना पड़ेगा. जबतक ऐसा नही होगा, हम अपनी जिम्मेवारियों से भागते रहेंगे. यहाँ तो सिर्फ बलात्कार की घटना पर बात हुई, महिलाओं के खिलाफ़ बाकी अपराधों की फेहरिस्त काफी लंबी है. महिलाओ के साथ लगातार होती घटनाओ से एक बात तो तय हो  गई है कि देश में कानून व्यवस्था कम से कम महिलाओ को सुरक्षा देने में सक्षम नहीं है. ऐसा नही होता तो क़ानूनी प्रावधान होने के बाबजूद बलात्कार, छेड़खानी, क्रूरता की घटना नही बढ़ती. ऐसी घटनाए शासन की विफलता और समाज की उदासिनता का सूचक है.

फिर भारत में बलात्कारों का सिलसिला रुकेगा कैसे? सरकार की सक्रियता के साथ साथ समाज की जागरूकता से. फिलहाल अपना स्वार्थ नही हो तो ज्यादातर लोग दूसरों की मजबूरी को  समझना ही नही चाहते. समाज में दुसरो के साथ क्या जुल्म हो रहे है, उसकी फिक्र करनेवाले लोग बहुत कम पड़ गए है. व्यवस्था से लड़ने की कोशिशें नाकाम कर दी जाती है और हम तमाशाई बने रहते है. पुलिस और सरकार निष्क्रिय तब होती है जब समाज नामर्द और बुजदिल बन जाता है.


मुझे नही पता कि ऊपर के सारे सवाल कितनों के दिमाग में आते है, कितनों को बेचैन करते है. फिलहाल मेरा अंतर्मन जबाब चाहता है, थोथी दलील नही. आपके पास जबाब है?

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