राष्ट्रीय सहारा, 28 मार्च 2020
कोरोना वायरस की वजह से आज दुनिया की एक बड़ी
आबादी अपनी जिंदगी बचाने की जद्दोजहद करती दिख रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों की माने तो इस
ख़तरनाक वायरस की चपेट में लगभग 4 लाख लोग है, वही 16 हजार से अधिक लोग अपनी जान
गवां चुके है. विश्व की लगभग आधी आबादी अपनी घरों में कैद है. ओलंपिक टल गए.
प्रार्थनाघरों में ताले लटक गए. सड़के सुनी हो गई. दुनिया के बड़े शहर वीरान से दिख
रहे है.
दुनिया के वैज्ञानिकों के लगातार कोशिशों के बावजूद
वायरस से लड़ने के लिए अभीतक कोई दवा विकसित नही की जा सकी है. कहा जा रहा है कि
स्थिति नही संभली तो द्वितीय विश्वयुद्ध से भी ज्यादा मानवीय क्षति हो सकती है.
दुनिया के तमाम देश लोगों की जिन्दगी बचाने की कोशिशों में जुटी है. वायरस को
फैलने से रोकने के लिए सरकारों ने सीमाए सील कर दी, विमानों की आवाजाही रोक दी,
आवश्यक कार्यों को छोड़ सारे दफ्तर बंद कर दिए. लोगों को सलाह दी जा रही है कि वे अपने
घरों में रहे और साफ़-सफाई का विशेष ध्यान रखे.
अफ़सोस! सरकार की सलाह के बावजूद लोग मान नही
रहे. जनता कर्फ्यू के दौरान जब लोगों को घरों में रहने के लिए कहा गया तो लोग
दिनभर अपनी घरों में रहे लेकिन शाम होते होते बड़ी भीड़ सड़कों पर जमा हो गई. विदेश
यात्रा से लौटने वाले लोगों को एअरपोर्ट पर 14 दिन घर में अलग रहने की सलाह दी गयी.
लेकिन देश भर से ऐसी ख़बरें आई कि लोग इसका पालन नही कर रहे है. परिणाम ये है कि वायरस
फैलता ही जा रहा है.
राजनीतिक वजहों से सरकार की बात जनता न माने तो
स्थिति समझ में आती है. जब खतरा जान जाने की हो, सरकारी तंत्र अपनी जान-जोखिम में
डाल लोगों को बचाने की कोशिशों में जुटा हो, वैसे में नागरिक अवज्ञा की यह प्रवृति
सरकार व समाज दोनों के लिए संकट बन जाता है. देखा जाए तो यह स्थिति इसलिए भी है
क्योंकि आज भी भारत सहित विश्व के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में नागरिक
स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार के नामपर जनता को अपनी मनमर्जी चलाने की अत्यधिक छुट
मिल जाती है. चीन जैसे अधिनायकवादी सरकारों के लिए अपनी जनता पर लगाम लगाना भले
आसान हो,
लोकतांत्रिक देशों में लोगों को घरों के अंदर रखने के फैसले का पालन करवाना बेहद
मुश्किल काम है. फिलीपींस का एक विडियो पूरी दुनिया में वायरल हो रहा है, जिसमें
वहां की पुलिस शवपेटी लेकर लोगों से कह रही है या तो घर में रहे या ताबूत में. फिर
भी लोग निकल रहे है. भारत में प्रधानमंत्री ने अपने राष्ट के नाम संबोधन में हाथ
जोड़ते हुए आग्रह किया कि कोई घर से न निकले लेकिन उस अपील के बाद भी देश की सड़कों
पर फिजूल के घूमते लोगों की विडियो सामने आ रही है.
यूरोपीयन एंड इटैलियन सोसाइटी ऑफ़ वायरोलॉजी के
प्रमुख रहे डॉ गीयोरगिओ पालू की माने तो चीन में उत्पन्न होने वाले घातक वायरस के
लिए रोम की प्रतिक्रिया में देरी राजनीतिक कारणों और नस्लवादी के रूप में माने
जाने की चिंताओं की वजह से हुई. जब अमेरिका ने कोरोना को फैलने से रोकने के लिए
चीन से अपनी आवाजाही खत्म कर दी तो दुनिया में एक सन्देश गया कि अमेरिका का यह कदम
नस्लीय है. प्रतिक्रियास्वरूप इटली में एक बड़ा अभियान चला जिसे हग ए चाइनीज नाम
दिया गया. आज इटली कोरोना से सबसे अधिक प्रभावित है तो इसके पीछे पॉलिटिकल
करेक्टनेस को भी एक जिम्मेवार माना जा रहा है, जहाँ सोशल डिस्टेंसिंग का लोगों ने
वैचारिक अर्थ निकाले. भारत में भी जनता कर्फ्यू और लॉकडाउन के बाद की प्रतिक्रियाओं
में उसकी झलक मिलती है, जहाँ आपातकालीन स्थितियों में भी राष्ट्रीय अनुशासन का
अभाव दीखता है.
नागरिकों पर बंदिशे लगाने का फैसला किसी भी
सरकार के लिए आसान नही होता. राजनीतिक रुप से कई विचारों व पार्टियों में विभाजित
हो चुके भारत जैसे देश में तो और नही. महामारी नियंत्रण कानून 1897 और आपदा
प्रबंधन कानून, 2005 के तहत पुलिस की सख्ती और पाबंदी के बावजूद जेल और जुर्माने
की सजा से बेपरवाह लोग बड़ी संख्या में देखे जा रहे है.
भारत में कुछ लोगों का यह भी मत है कि वर्तमान
स्थिति को झेलने के लिए लोग मानसिक रुप से तैयार नही है. एकसाथ पुरे देश को अपनी
जान का खतरा हो और लोग अपनी घरों में लम्बे अरसे तक कैद हो जाए, इसका न तो अनुभव
रहा, न ऐसे अनुभवों से गुजरने की मानसिकता रही. देश के अधीर और सबकुछ बेहतर देखने
की आकांक्षावान युवा पीढ़ी के लिए तो ये बिल्कुल नया है. युद्धकाल हो अथवा आपातकाल,
उन दिनों भी पूरा देश घरों में न तो कैद हुआ, न इतनी बंदिशे थी. जाहिर है, इस
यथास्थिति को स्वीकारने में वक़्त लगेगा. इंग्लैंड ने ऐसी परिस्थिति को अपने पक्ष
में करने के लिए लोगों को जोड़ने की पहल की तो 24 घंटों में ही 4 लोग लोगों ने स्वयं
से वालंटियर बनने की इच्छा जताई है. भारत में भी ऐसा किया जा सकता है.
एक अमेरिकी डॉक्टर के शब्दों में कहे तो
स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से स्वर्ग वहां है, जहां फ़डिंग, अस्पताल और चिकित्सा शिक्षा अमेरिकी हो
वही लाइफस्टाइल और स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच इतालवी हो। लेकिन आज कोरोना से
सबसे अधिक प्रभावित देशों में अमेरिका और इटली भी है. इन दोनों देशों में इस वायरस
से पीड़ित नागरिकों की संख्या 50000 से भी अधिक हो चुकी है। इटली में चीन से भी ज्यादा लोगों की मौत हो
चुकी है. न्यूयॉर्क, न्यू जर्सी जैसे अमेरिका के बड़े शहर बुरी तरह कोरोना के चपेट
में है.
इम्पीरियल कॉलेज ऑफ़ लंदन के एक अध्ययन की माने
तो अगर इंग्लैंड और अमेरिका ने लॉकडाउन अथवा सोशल डिसटेंसिंग जैसे कोई उपाय नही
किये तो 81 प्रतिशत लोग वायरस के शिकार होंगे, जिससे 5 लाख से अधिक इंग्लैंड में, वही 22 लाख से अधिक अमेरिका में लोग इस
वायरस की वजह से मौत के शिकार हो सकते है. जाहिर है, जब बेहतरीन स्वास्थ्य
सुविधाओं के लिए प्रसिद्द देश कोरोना से लड़ पाने में असक्षम साबित हो रहे है,
नागरिक अनुशासन में न रहे तो भारत का क्या हाल हो सकता है समझा जा सकता है.
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