बीते दिनों
#ReadABookChallenge के तहत
कई किताबें
पढ़ी. विशेष
जिज्ञासा आचार्य
जेबी कृपलानी
के बारे
में जानने
की हुई
तो जानकारी
जुटाने के
लिए कई
पुस्तकों को
पढ़ा।
कृपलानी जी
को उनके
शिक्षा में
दिए योगदान
की वजह
से मै
सदैव स्मरण
करता हूँ।
उन्होंने मौलिक
अधिकारों से
जुड़े संविधान
सभा की
उप-समिति
का नेतृत्व
किया था।
समिति ने
14 वर्ष
तक की
आयु वाले
बच्चों की
शिक्षा को
मूल अधिकार
माना था,
जिसे संविधान
सभा ने
ठुकरा दिया
था। अंततः
यह शिक्षा
के अधिकार
कानून के
रुप में
2002 में
आंशिक रुप
से, 2009 में
पूरी तरह
यह लागू
हो सका।
कृपलानी के
राष्ट्रीय राजनीति
में आने
की कहानी
बेहद दिलचस्प
है।
सिंध से
मुजफ्फरपुर आये
थे कृपलानी
एक लोकप्रिय
शिक्षक व
कुशल वक्ता
रहे जीवंतराम
भगवानदास कृपलानी
का जन्म
अब के
सिंध पाकिस्तान
में 11
नवंबर 1988
को हुआ
था। शिक्षा
दीक्षा पुणे
और बंबई
में पाई।
तिलक के
विचारों से
प्रभावित कृपलानी
एमए की
पढ़ाई करने
के बाद
अपने भविष्य
के प्रति
चिंतित थे.
सिंध में
अपने परिवार
व समाज
के बीच
अपने उग्र
राजनीतिक विचार
रखने की
वजह से
आसानी से
वे स्वयं
को स्वीकार्य
नही पा
रहे थे।
इसी बीच
उनके एक
मित्र एच.एल.चबलानी
मुजफ्फरपुर स्थित
जीबीबी कॉलेज(अब
लंगट सिंह
कॉलेज)
में अर्थशास्त्र
विभाग के
प्रोफ़ेसर नियुक्त
हुए थे।
उन्होंने ही
इतिहास विभाग
में जगह
खाली होने
की बात
बताते हुए
पत्र लिख
कृपलानी को
आवेदन करने
को कहा।
अपने आवेदन
व चबलानी
के अनुशंसा
पर कृपलानी
इतिहास विभाग
में 1913
में नियुक्त
हो गये।
देशसेवा का
जूनून पैदा
करने वाले
‘दादा’
पतले-दुबले
शरीर और
नाटे कद
के कृपलानी
विद्यार्थियों में
अपने स्वभाव
व अनोखे
शिक्षण की
वजह से
अत्यंत लोकप्रिय
थे। दिन
में कक्षा
में शिक्षक
तो शाम
में वे
विद्यार्थियों के
साथ फुटबॉल,
टेनिस, हॉकी
खेलते थे।
अत्यधिक अनुशासनप्रिय
कृपलानी कक्षा
में सख्त
तो बाहर
अपने विद्यार्थियों
के मित्र
थे, जिनके
लिए वे
सदैव उपलब्ध
रहते थे।
यही वजह
थी कि
बच्चें उन्हें
प्यार से
दादा कहकर
बुलाते थे।
कॉलेज में
आने का
अपना मकसद
बताते हुए
लंगट सिंह
कॉलेज के
स्वर्ण जयंती
विशेषांक में
वे लिखते
है कि
मै यहाँ
नौजवानों में
देश के
लिए प्रेम
और इसकी
सेवा के
लिए इच्छा
पैदा करने
के साथ
ही उन्हें
आज़ादी के
लिए कार्य
करने लिए
प्रेरित करता
था। वे
लिखते है
कि पढ़ाई
के दौरान
में विद्यार्थियों
से देश
की समस्या
के बारे
में जानने
के लिए
प्रेरित करते
हुए उन्हें
यह बताता
था कि
कैसे विदेशी
शासक देश
को बर्बाद
करने में
लगे है,
उद्योगों को
चौपट कर
रहे है
और जनता
का शोषण
कर उन्हें
असहाय बना
रहे है।
कृपलानी श्री
रामकृष्ण परमहंस,
स्वामी विवेकानंद
और स्वामी
राम तीर्थ
के लिखे
लेखों और
उनके संदेशों
को भी
विद्यार्थियों के
बीच रखते
थे, जिससे
उन्हें देश
के प्रति
कुछ करने
का जूनून
जगे। कृपलानी
लिखते है
कि उनकी
गतिविधियों के
बारे में
यूरोपियन प्राचार्यों
को सब
पता था
लेकिन सरकारी
कॉलेज नही
होने की
वजह से
वे कुछ
भी करने
में असमर्थ
थे, सिवाए
सरकार को
मेरी गतिविधियों
के बारे
में बताने
के।
आज़ादी के
दीवानों के
हितैषी
कॉलेज में
आने के
बाद कृपलानी
मुजफ्फरपुर के
सक्रीय लोगों
के संपर्क
में रहते
थे। वे
उनकी भी
मदद करते
थे जो
आज़ादी के
आन्दोलन में
सक्रीय थे।
बंगाल से
भागकर आये
क्रांतिकारियों को
सुरक्षित स्थान
मुहैया कराने
से लेकर
आर्थिक मदद
तक की
बंदोबस्त वे
करते थे।
वे अपनी
175 रूपये
के वेतन
में से
30 रुपया
रखकर बाकी
राष्ट्रीय हितों
के लिए
खर्च कर
देते थे।
जब गाँधी
से पहली
बार मिले
कृपलानी
गाँधी जब
अफ्रीका से
भारत आये
तो कृपलानी
उन चंद
राजनीतिक कार्यकर्ताओं
में से
एक थे,
जिनसे उनकी
मुलाक़ात हुई।
कृपलानी गाँधी
से पहली
बार मार्च
1915 में
शांतिनिकेतन में
मिले थे,
जहाँ वे
एक सप्ताह
तक रहे,
जहाँ वे
देश के
राजनीतिक भविष्य
और आज़ादी
के लिए
अहिंसा के
प्रयोग से
जुड़ी जिज्ञासाओं
को शांत
करने वाली
चर्चा में
बिताया।
कृपलानी लिखते
है कि
मैंने गाँधी
को बताया
कि मै
अहिंसा में
विश्वास नही
करता। हो
सकता है
अहिंसक तरीके
से हम
कुछ प्रशासनिक
सुधार प्राप्त
कर सके,
जिनमे भारतियों
को उच्च
पदों वाली
अधिक नौकरी
और ज्यादा
सुविधाए मिल
जाए, लेकिन
हमारा मकसद
विदेशी सत्ता
की जगह
भारतीय सत्ता
लाना है। गाँधी
ने अपने
प्रतिउत्तर में
कहा कि
इतिहास ने
अपने आखिरी
शब्द अभी
तक नही
लिखे है।
यह जबाब
सुनकर कृपलानी
लिखते है
कि मुझे
लगा यह
आदमी इतिहास
में एक
नया क्रन्तिकारी
अध्याय जोड़ेगा।
1917 में
मुजफ्फरपुर आने
से पहले
गाँधी से
कृपलानी की
कई बार
मुलाक़ात बंबई
में हुई।
1916 के
लखनऊ अधिवेशन
में भी
वे गाँधी
से मिले।
जब मुजफ्फरपुर
में हुई
गाँधी-कृपलानी
की मुलाक़ात
चंपारण के
किसानों की
स्थिति जानने
जब गाँधी
बिहार आये
तो राजेन्द्र
प्रसाद से
मिलने पहुंचे।
राजेन्द्र प्रसाद
अपने घर
पर नही
थे, न
ही उनके
घर उनके
नौकरों ने
रुकने दिया।
ऐसी स्थिति
में गाँधी
अपने एक
मित्र के
यहाँ गए
और उसके
बाद उन्होंने
कृपलानी से
मिलने की
योजना बनाते
हुए देर
रात कृपलानी
को तार
भेजा।
10 अप्रैल
1917 को
रात्रि में
गाँधी जब
मुजफ्फरपुर आए
तो कृपलानी
ने ही
उनकी आगवानी
और अपने
साथी शिक्षक
एन.आर.मलकानी
के यहाँ
रहने की
व्यवस्था की।
सुबह में
कृपलानी ने
देखा कि
जिस मलकानी
के घर
गाँधी रुके
थे, वे
अपने सामान
के साथ
तैयार थे।
जाहिर सी
बात थी
वे बेचैन
थे। कृपलानी
ने उन्हें
शांत किया
और चिंतामुक्त
रहने की
बात करते
हुए प्राचार्य
को ‘गाँधी
मेरे अतिथि
है’
की बात
स्वयं बताने
की बात
कही। यह
घटना कृपलानी
और उनके
छात्रों के
लिए हैरान
करने वाली
थी कि
अंग्रेजों का
डर इतना
है कि
पढ़े लिखे
और बुद्धिजीवी
लोग भी
विपरीत परिस्थिति
में अपना
धैर्य खो
बैठते है।
कॉलेज खुलने
पर प्राचार्य
से जब
कृपलानी मिले
और गाँधी
का जिक्र
किया तो
प्राचार्य ने
कहा कि
वह कुख्यात
गाँधी तुम्हारा
अतिथि है।
कृपलानी ने
विरोध भरे
स्वर में
गाँधी को
कुख्यात कहने
पर कहा
कि आप
उन्हें कुख्यात
क्यों कह
रहे है?
उन्होंने तो
अपनी सेवा
उस साम्राज्य
के लिए
दी है
जिन्होंने उन्हें
कैसर-ए-हिन्द
की उपाधि
दी। इसपर
प्राचार्य ने
किसी अन्य
जगह रहने
की व्यवस्था
करने की
बात करते
हुए कहा
कि उसने(गाँधी)
कुछ बढ़िया
किया है
और बहुत
ज्यादा नुकसान
भी पहुंचाया
है। कृपलानी
यह कहकर
कक्ष से
निकल गये
कि यह
हमारा रिवाज
नही है
कि अतिथि
को होटल
में रुकने
को कहे।
अगर मै
गाँधी के
पास जाता
तो वे
भी मुझे
अपने पास
ही रखते।
मुजफ्फरपुर आने
के प्रसंग
का जिक्र
करते हुए
गाँधी अपनी
आत्मकथा में
लिखते है
कि मेरे
पुराने परिचित
कृपलानी के
त्याग और
साधारण जीवन
के बारे
में मुझे
डॉ चोइथराम
ने बताया
था कैसे
उनकी आश्रम
की व्यवस्था
करने में
कृपलानी ने
आर्थिक मदद
की। कॉलेज
परिसर में
रुकने की
व्यवस्था करने
पर गाँधी
लिखते है
कि मेरे
जैसे व्यक्ति
को ठिकाना
देना किसी
सरकारी प्रोफ़ेसर
के लिए
एक असाधारण
सी बात
थी। कृपलानी
ने मुझे
न केवल
चंपारण के
किसानों की
दयनीय स्थिति
के बारे
में जानकारी
बल्कि इस
कार्य में
आने वाली
कठिनाईयों के
बारे में
भी बताया।
उनका बड़ा
ही नजदीकी
रिश्ता बिहार
के लोगों
के साथ
था और
मेरे मिशन
के बारे
वे अपने
मित्रों को
पहले ही
बता चुके
थे।
गाँधी से
मिलवाने के
लिए कृपलानी
ने शहर
के प्रमुख
अधिवक्ताओं को
बुलाया जिनसे
गाँधी ने
चंपारण के
किसानों की
स्थिति व
उसके क़ानूनी
पक्ष को
जानने-समझने
की कोशिश
की।
गाँधी से
जुड़ाव की
वजह से
छोड़ना पड़ा
कॉलेज
गाँधी जबतक
कृपलानी के
साथ रहे,
कॉलेज के
एक भी
प्रोफ़ेसर गाँधी
से मिल
पाने की
हिम्मत नही
जुटा पाए।
तीन दिन
मुजफ्फरपुर रहने
के बाद
जब गाँधी
चंपारण चले
गये तो
कृपलानी उनके
साथ नही
थे, फिर
भी विशेष
संदेशवाहक के
जरिये संदेशों
का आदान-प्रदान
गाँधी के
साथ उनका
होता रहा,
जिससे वे
चंपारण में
हो रही
गतिविधियों से
जुड़े रहे।
जहाँ कृपलानी
पढ़ाते थे,
वह जीबीबी
कॉलेज 1
जुलाई 1915
को ही
एक निजी
कॉलेज से
सरकारी कॉलेज
बना था।
तब 11
शिक्षक वहां
कार्यरत थे,
जिनकी सेवा
पुष्ठी की
जा सकती
थी।
कॉलेज में
गर्मियों की
छुट्टीयों से
पहले कृपलानी
को एक
पत्र निदेशक
जननिर्देश का
मिला, जिसमें
उनकी सेवा
समाप्त करने
की बात
लिखी थी।
उस समय
कॉलेज का
अधिग्रहण सरकार
द्वारा कर
लिया गया,
जिसमें एक
अन्य प्रोफ़ेसर
को छोड़
बाकी सभी
की नौकरी
पुनः बहाल
कर दी
गई। यहाँ
यह समझना
कठिन नही
था कि
राजनीतिक विचारों
और विभिन्न
गतिविधियों में
सक्रियता की
वजह से
कोई कारण
नही था
कि कृपलानी
को वे
रखते। कॉलेज
बोर्ड के
सदस्यों व
अन्य कई
गणमान्य नागरिकों
ने निदेशक
को पत्र
लिखकर यह
आग्रह किया
कि कृपलानी
एक बेहतर
व सक्षम
शिक्षक है
तथा उनकी
सेवा समाप्ति
कॉलेज के
लिए अपूर्णीय
क्षति होगी,
इसलिए उन्हें
पुनः बहाल
किया जाए।
इसी बीच
गाँधी के
अतिथि के
रूप में
आगमन ने
उनकी पुनः
बहाली पर
सदा के
विराम लगा
दिया और
इस तरह
उनका करियर
एक प्रोफ़ेसर
के रूप
में समाप्त
हो गया।
राज्य सरकार
ने कॉलेज
के दो
शिक्षकों बी.के
राय और
कृपलानी को
राजनीतिक गतिविधियों
में लिप्त
रहने की
वजह से
उनकी सेवा
समाप्त कर
दी।
कृपलानी ने
इसके बाद
गाँधी को
एक पत्र
लिखा और
कहा कि
वे अब
स्वतंत्र है
और अगर
वे चाहे
तो चंपारण
में उनके
साथ जुड़ना
चाहेंगे ताकि
उनके काम
में कही
उपयोग आ
सके। गाँधी
का जबाब
तुरंत ही
17 अप्रैल
को आया,
जिसमें गाँधी
ने लिखा
था कि
मैंने आपके
शब्दों, भावों,
आँखों में
एक लगाव
को पढ़ा
है। आपको
अपनी पसंद
चुनने चाहिए।
चाहे तो
अहमदाबाद जाकर
विद्यालय के
साथ कार्य
करें या
फिर कैद
होने के
रिस्क लेकर
यहाँ काम
करें। अगर
आप चाहते
है कि
यहाँ रहने
के बारे
में मै
चुनाव करूँ
तो मै
कहूँगा कि
जबतक एक
व्यक्ति के
रूप में
आपको साँस
लेने की
आज़ादी है
तबतक उस
जगह को
न छोड़े।
चंपारण में
कृपलानी
जब कृपलानी
गाँधी के
पास पहुंचे
तब गाँधी
के सहयोगी
वरिष्ठ अधिवक्ता
धरणीधर बाबू
ने गाँधी
को सलाह
दी कि
आप कृपलानी
को अपने
साथ बेतिया
न ले
जाए। इनकी
पहचान राजनीति
में एक
गरमपंथी के
रूप में
है। इनकी
वजह से
अधिकारीयों के
साथ कुछ
दिक्कतें हो
सकती है।
गाँधी हँसे
और उनसे
कहा कि
प्रोफेसर हमारे
साथ ही
रहेंगे। बाद
में धरणीधर
बाबू कृपलानी
के साथ
काम करते
हुए आजीवन
मित्र बनकर
रहे।
कृपलानी की
राजनीतिक सक्रियता
की जानकारी
सरकार को
थी और
उनमें कही
न कही
यह बेचैनी
भी थी
कि कृपलानी
के गाँधी
के साथ
रहने से
सरकार का
नुकसान हो
सकता है।
कृपलानी जब
गाँधी के
साथ चंपारण
में रहने
लगे तो
कुछ दिनों
के अन्दर
ही सरकार
द्वारा गाँधी
के लिए
भेजे गए
एसपी ने
गाँधी के
पास आकर
कहा कि
अधिकारीयों को
अहिंसा के
प्रति उनकी
प्रतिबद्धता पर
कोई संदेह
नही है
लेकिन उनके
सहयोगियों के
बारे में
संदेह है।
गांधीजी ने
कहा कि
हमारे साथ
के सभी
लोग वकील
है और
वे केवल
बयान रिकॉर्ड
करने आये
है। एसपी
ने कहा,
प्रोफ़ेसर कृपलानी
के बारे
में क्या
कहना है?
उनकी पहचान
एक क्रन्तिकारी
विचार रखनेवालों
में है।
वे किसी
भी स्थिति
में सरकार
के प्रति
सही राय
रखने वाले
नही होंगे,
जिसने उन्हें
अभी हाल
में ही
बर्खास्त किया
है। गाँधी
ने जबाब
दिया कि
कृपलानी यहाँ
हम कैसे
कार्य कर
रहे है,
उसकी स्थिति
के बारे
में जानते
है। वे
एक सभ्य
व्यक्ति है।
वह इसमें
एक भूमिका
अदा करेंगे।
इसपर एसपी
ने कहा
कि वे
केवल एक
हिदायत दे
रहे थे।
गाँधी ने
लौटकर ये
बातें कृपलानी
को बताई।
कृपलानी जबतक
गाँधी चंपारण
में रहे,
उनके सहयोगी
के नाते
रहे। स्थानीय
भाषा समझने
में कठिनाई
की वजह
से बयान
रिकॉर्ड करने
के कार्य
से कृपलानी
तो नही
जुड़े लेकिन
गाँधी के
भोजन से
लेकर प्रशासनिक
कार्यों तक,
सबकी जिम्मेवारी
सँभालते रहे।
कांग्रेसी रहे
कृपलानी जब
बने विपक्ष
की बुलंद
आवाज़
गाँधी के
साथ एक
लंबा वक़्त
रहने का
जो दौर
चंपारण से
शुरू हुआ,
वह उनके
जीवनपर्यंत बना
रहा। कृपलानी
जी गाँधी
के चंपारण
आंदोलन के
महज सहयोगी
ही नही
रहे, राष्ट्रीय
राजनीति के
एक जाने-माने
चेहरे के
रूप में
उभरे और
अपने स्वभाव
के साथ
जिए। काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय
में प्रोफ़ेसर
रहे। गुजरात
विद्यापीठ के
प्राचार्य रहे।
बाद में
भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के
बड़े नेता
बनकर उभरे।
वे 1934-45
तक कांग्रेस
के महासचिव
और आज़ादी
के समय
कांग्रेस के
अध्यक्ष भी
बने। गाँधी
के गुजरने
के बाद
भी कृपलानी
गाँधी के
विचारों का
अनुसरण आजीवन
करते रहे।
प्रधानमंत्री बनने
के लिए
जब वोटिंग
हुई तो
सरदार पटेल
के बाद
कृपलानी को
ही मत
मिले थे।
बाद में
गाँधी के
हस्तक्षेप से
नेहरु प्रधानमंत्री
की कुर्सी
तक पहुंचे।
आज़ादी मिलने
के बाद
संविधान सभा
के सदस्य
के नाते
कृपलानी बेहद
सक्रीय रहे
और मौलिक
अधिकारों की
उप-समिति
के अध्यक्ष
के नाते
अपनी अहम्
भूमिका निभायी।
1950 आते
आते कांग्रेस
से उनका
मोहभंग हो
गया और
उन्होंने अपनी
अलग पार्टी
किसान मजदूर
प्रजा पार्टी
बना ली।
बाद में
उन्होंने इस
पार्टी का
विलय सोशलिस्ट
पार्टी में
कर प्रजा
सोशलिस्ट पार्टी
के नेता
के तौर
पर संसद
में विपक्ष
की बुलंद
आवाज़ बने।
1952 से
लेकर 1967
तक चार
बार अलग-अलग
क्षेत्रों से
सांसद रहे
कृपलानी ने
भारत-चीन
युद्ध के
बाद नेहरु
के खिलाफ
विश्वासमत का
प्रस्ताव लाने
की वजह
से इतिहास
के पन्नों
में आज
भी बेहद
चर्चित है।
इंदिरा गाँधी
से मतभेद
रखने वाले
कृपलानी आपातकाल
के दौरान
पहले उन
व्यक्तियों में
शामिल थे,
जिन्हें सरकार
द्वारा गिरफ्तार
किया गया
था। 93
वर्ष की
उम्र में
सन 1982
में कृपलानी
का देहांत
साबरमती आश्रम
में हुआ।
कृपलानी आजीवन
अपने विचारों
के प्रति
बेहद निष्ठावान
रहे। यही
उनकी विशेष
पहचान थी।
ऐसे महान
राजनेता को
नमन्!
Original Link-
https://www.chhatrashakti.in/2020/05/03/acharya-jb-kripalani-the-inspiring-story-of-a-teacher-becoming-a-national-leader-1073/
स्रोत
:
(1)माय टाइम्स
(लेखक-जे
बी कृपलानी)
(2) गाँधी
इन चंपारण
(लेखक- डॉ.
राजेन्द्र प्रसाद)
(3) गाँधी
जीवन एवं
दर्शन
(लेखक- जेबी
कृपलानी)
(4)द स्टोरी
ऑफ़ माय
एक्सपेरिमेंट विथ
ट्रुथ, महात्मा
गाँधी, नवजीवन
पब्लिशिंग हाउस
(5)स्वर्ण जयंती
विशेषांक, एल.
एस. कॉलेज
लेखक
लंगट सिंह
कॉलेज के
पूर्व छात्र
रहे है
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