चुनाव में जबतक सभी मतदाता भाग नही लेंगे, हम कैसे एक आदर्श लोकतंत्र की बात करने की सोचेंगे! चुनाव में “इनमे से कोई नही” विकल्प के साथ साथ लोकतंत्र की मजबूती के लिए “इनमे से कोई मतदान करने से नही छुटा” भी होना अनिवार्य है. भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि सभी मतदाता चुनाव में मतदान नही करते.
जनभावनाओं को नकारना भले ही जनप्रतिनिधियों की आदत हो गई हो, लेकिन कोर्ट
द्वारा दिए गये हालिया फैसले से ऐसा लगता है कि बदलाव की शुरुआत हो गई है. जड़ता
समाप्त होगी! जन-मन की भावनाओं से संस्थाओं को जुड़ना ही पड़ेगा! जिस फैसले को कोर्ट
ने कभी सुनने से इंकार किया था, उसपर न फैसला सुनाया, बल्कि एक इतिहास रच दिया. आज
उसकी झलक भी देखने को मिली. सुप्रीम कोर्ट ने नकारात्मक मतदान अर्थात “राईट टू
रिजेक्ट” की बहुत पुरानी मांग आज मान ली है. कोर्ट ने अपने एक फैसले में चुनाव
आयोग को ईवीएम मशीनों में “इनमें से कोई नही” बटन लगाने के निर्देश दिए है.
एक गैर सरकारी संस्था पीयूसीएल द्वारा दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस
पी सथासिवम, जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई और जस्टिस रंजन गोगोई की तीन सदस्यीय पीठ ने
यह ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है. पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि वोटर को अपने
निर्वाचन क्षेत्र में खड़े उम्मीदवारों में से सभी को अस्वीकार करने का हक़ दिया
जाना चाहिए. अपने फैसले के तर्क में कोर्ट ने यह उम्मीद जताई है कि नकारात्मक
मतदान की व्यवस्था होने से चुनाव और राजनीति में साकारात्मक बदलाव आएंगे! चुनाव
में किसी को नकारने के अधिकार को कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनु. 19 के तहत
भारतीय नागरिकों को दिए गए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत
माना है. कोर्ट ने यह भी कहा है कि नकारात्मक वोटिंग को बढ़ावा देने से चुनावों
में शुद्धता और जीवंतता आएगी.
इस फैसले से पहले वोट न करने के अधिकार सिमित मात्रा में चुनाव के समय
मतदाताओं को मिला हुआ था. कंडक्ट ऑफ़ इलेक्शन रूल्स के नियम 49 के तहत मतदान न करने
का निर्णय कोई मतदाता अपने पोलिंग बूथ पर जाकर दर्ज करवा सकता था, जो अमूमन गोपनीय
होता था. इसलिए यह मांग वर्षों से की जाती रही है कि वोटरों को “इनमे से कोई नही”
का विकल्प चुनने की आज़ादी मिले ताकि सही और मनपसंद उम्मीदवार न होने की सूरत में
अपना विरोध जताने का लोकतांत्रिक अधिकार मिल सकें. इस फैसले के लागू होने से यह
मांग तो पूरी होगी ही, अब यह बात भी सार्वजनिक होगा कि कितने मतदाताओं ने
नकारात्मक मतदान किया है और उपलब्ध प्रत्याशियों को नकारते हुए “इनमे से कोई नही”
का विकल्प चुनने वाले मतदाताओं की संख्या कितनी रहती है.
आगामी लोकसभा चुनावों से पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला कई मायनों में ऐतिहासिक
है. वोटिंग मशीन में 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प होने के इस फैसले से देश के राजनीतिक परिदृश्य
में भूचाल आ गया है. हलाकि सभी राजनीतिक दलों की प्रारंभिक टिप्पणियां इस फैसले के
समर्थन में ही आई है, लेकिन उनपर विश्वास करना कठिन है. अभी हाल ही में सुप्रीम
कोर्ट ने देश के किसी भी कोर्ट में दोषी ठहराए गए दागी व अपराधियों के निर्वाचन को
रद्द करने का फैसला सुनाया था. इस फैसले के खिलाफ़ लगभग सभी राजनीतिक दलों की सहमती
थी. यूपीए सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए आनन फानन में
अध्याधेश भी ले आई, जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा भी जा चूका है. वैसे
समय में कोर्ट का यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.
इस फैसले में चुनावी सुधार की दिशा में बढ़ते देश की मन:स्थिति की एक झलक दिखाई
देती है. न्यापालिका इससे पहले ऐसी मांगों को संसद का विशेषाधिकार बताकर कोई फैसला
देने से बचती रही है, लेकिन आज के निर्णय से उसने यह जता दिया है कि अगर संसद
सुधार नही चाहती तो अदालत जनभावनाओं और संविधान के दायरे में हस्तक्षेप करेगी.
नकारात्मक मतदान के कोर्ट के इस फैसले से देश की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ
साकारात्मक बदलाव होने की गुंजाईश बनी है. इसके लागू होने से राजनीतिक दलों में
अच्छे, साफ़ छवि वाले प्रत्याशियों को उतारने का दबाब होगा! वही दूसरी ओर, जनता के
पास सही विकल्प न होने पर नापसंदगी का अधिकार इस्तेमाल करने की आज़ादी! एकतरफ जहाँ
इससे भारत के चुनावी राजनीति में पारदर्शिता और जनता के प्रति जनप्रतिनिधियों की
जबाबदेही को बढ़ावा मिलेगा, वही दूसरी तरफ इस फैसले के लागू होने से अपराधियों, भ्रष्टाचारीयों,
वंशवादी अयोग्य नेतृत्व को बढ़ावा देनेवाली व सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़कर अपनी
रोटियाँ सेंकने वाले दलों को भी इससे करारा झटका लगेगा. संसद दागियों, अपराधियों
से मुक्त होगी.
देखा जाए तो ईवीएम मशीन में “इनमे से कोई नही” विकल्प रहने से जनता के हाथों
में एक ऐसा आधिकार आ गया है, जिससे सही मायनों में जनता सशक्त हुई है. अब वह अपने
पसंद, नापसंद के निर्णय को जताने की ताकत पा गया है. लेकिन इस फैसले को लागू करने
में कई चुनौतियां भी सामने आनेवाली है. साथ ही कई सवाल भी खड़े होते है. मसलन, इस
फैसले को लागू करने से अगर किसी क्षेत्र में मतदान “इनमे से कोई नही” के पक्ष में
होता है तो दूसरी बार मतदान होगी या नही? अगर दूसरी बार मतदान होगी तो इसके खर्च
का भार कौन उठाएगा? दूसरी बार के मतदान में भी दलों ने अपने समान प्रत्याशी उतारे
और परिणाम पहले जैसा ही आए तो क्या फिर तीसरी बार मतदान होगी? क्या पहली बार हुए
मतदान में अस्वीकार कर दिए प्रत्याशी चुनाव लड़ने को अयोग्य होंगे या नही? यह फैसला
कब से लागू होगा? क्या यह फैसला आनेवाले दिनों में होनेवालें विधान सभा चुनावों
में भी लागू होगा? सबसे महत्वपूर्ण, क्या इसपर राजनीतिक दलों में सहमती बन पाएगी?
इस फैसले से कई चिंताएं भी उभरी है. सबसे बड़ी यह चिंता है कि इस विकल्प को एक
लंबी लाइन में घंटों खड़े होकर कोई इस्तेमाल क्यों करना चाहेगा, जब वह जानता है कि
हमारा मतदान अवैध हो जाएगा? वही दूसरी ओर, इस फैसले के लागू होने पर ही संदेह उठ
रहे है. थोड़े दिनों पहले दागी व अपराधियों के निर्वाचन को अयोग्य ठहराने के फैसले
को जिस तरह से सभी दलों ने विरोध किया और तुरंत इसे रद्द करने के लिए अध्याधेश ले
आया गया, वैसे में कही इस फैसले के साथ भी राजनीतिक दलों द्वारा सामान व्यवहार तो
नही किया जाएगा? इस फैसले के लागू होने के बाद अब यह देखना दिलचस्प होगा कि
राजनीतिक व्यवस्था से घृणा करनेवाला मतदाता अपने घरों से बाहर निकलकर मतदान करेगा
या नही! किस किसपर इसकी गाज गिरेगी!
कई लोगों ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कोर्ट से अनिवार्य मतदान की भी
व्यवस्था करने की अपेक्षा की है. गुजरात सरकार ने कई बार इसकी कोशिश भी की, लेकिन
राज्यपाल द्वारा राजनीतिक वजहों से इसे नकार दिया गया. आखिर चुनाव में जबतक सभी
मतदाता भाग नही लेंगे, हम कैसे एक आदर्श लोकतंत्र की बात करने की सोचेंगे! चुनाव में
“इनमे से कोई नही” विकल्प के साथ साथ लोकतंत्र की मजबूती के लिए “इनमे से कोई
मतदान करने से नही छुटा” भी होना अनिवार्य है. भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी
यही है कि सभी मतदाता चुनाव में मतदान नही करते. या कहिए एक पढ़े-लिखे तबके का बड़ा हिस्सा इसमें रूचि नही लेता. मात्र 60-65 फीसदी मतदान में
20-30 फीसदी पाकर लोग चुनाव जीत जाते है. अब जब लोग चुनाव में वोट डालने ही नही
जाते, फिर कैसे अच्छे जनप्रतिनिधि चुनाव जीतकर आएंगे और जनभावनाओं व जरूरतों के
मुताबिक काम करेंगे.
चुनावी सुधार की बयार सिर्फ राजनीतिक दलों की पारदर्शिता और जबाबदेही तक सिमित
न होकर, शत-प्रतिशत मतदान करने की जन जबाबदेही तक बहनी चाहिए. जिस दिन राईट टू
रिजेक्ट के साथ सौ प्रतिशत मतदान होने शुरू हो गए, समझिए भारत में आदर्श लोकतंत्र
प्रतिस्थापित हो गया. उस दिन छाती चौड़ा करके और सर गर्व से उठाकर हम कह सकेंगे,
वास्तव में भारत महान है. भारतीय लोकतंत्र कोई सानी नही है.
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