September 10, 2019

डूसू के चुनावी मैदान से क्यों गायब है आप




देशभर में चर्चित दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की बिगुल बज चुका है। माना जा रहा है कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मुख्य मुकाबला अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन (एनएसयूआई) के बीच ही होगा। लेकिन सबसे हैरानी की बात है कि दिल्ली की राजनीति का केंद्र बिंदु बनी आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई छात्र युवा संघर्ष समिति (सीवाईएसएस) और केजरीवाल दोनों इस बार पूरे परीदृश्य से गायब है।

2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप के 70 में से 67 सीट जीताने में बड़ी भूमिका युवाओं की थी। हैरानी स्वाभाविक है कि राजनीति में बदलाव के वादे के साथ बनी पार्टी दिल्ली में युवाओं के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक त्यौहार से खुद को क्यों अलग रख रही है!

पिछले वर्ष मिली थी करारी हार   

सीवाईएसएस की माने तो वह इसलिए चुनाव से खुद को अलग कर रही है क्योंकि मांगपत्र देने और कार्यकर्ताओं के अनशन पर बैठने के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन बैलेट पेपर से चुनाव करवाने की उसकी मांग को नही मान रही। वे यह मानते है कि पिछले बार ईवीएम की धांधली की वजह से वे हारे।

पहली नज़र में तो ये फैसला राजनीतिक सूझ-बुझ और आदर्शवादिता की निशानी लिए लगता है। लेकिन गहराई में जाए तो सच्चाई यही है कि पिछले वर्ष के चुनाव में मिली करारी हार के सदमे से वह अब भी नही उभर पाई है। तब डूसू चुनाव में उसे एबीवीपी के हाथों करारी शिकस्त हासिल हुई थी। वामपंथी संगठन आइसा से गठबंधन करने के बावजूद न तो उसे किसी सीट पर जीत मिली, न ही वह मुख्य मुकाबले में भी कही दिखी। हालात तो ऐसे थे कि दिल्ली सरकार के तमाम मंत्रियों और रणनीतिकारों के दिन-रात एक करने के बावजूद उसके दोनों उम्मीदवारों को नोटा से भी कम मत मिले, वही गठबंधन  चारों पदों पर तीसरे स्थान पर रही। तब अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर आइसा का उम्मीदवार था, वही सचिव और संयुक्त सचिव पद पर खुद सीवाईएसएस ने अपने उम्मीदवार उतारे थे। चुनावी नतीजे ये बता रहे थे कि चारों पदों पर गठबंधन की लड़ाई एबीवीपी-एनएसयूआई की वजाए नोटा से ही हो रही थी। जहाँ गठबंधन को चारों पदों को मिलाकर 29506 मिले, वही नोटा को 27739 वोट मिले। सचिव और संयुक्त सचिव पद के उम्मीदवारों को कुल 13781 वोट मिले, जबकि इन दोनों पदों पर नोटा को उससे अधिक 15083 वोट मिले थे। इस हार के बाद संगठन परिसर में निष्क्रिय हो गया।

DUSU चुनाव-2018 के समय प्रत्याशियों की वजाए केजरीवाल के ही पोस्टर दिखाई दिए 


साल अलग, बहाने अलग  

2016 और 2017 में भी सीवाईएसएस चुनावी मैदान से बाहर थी। लेकिन तब उसके बहाने कुछ और थे। 2015 के चुनाव में मिली हार के बाद ये कहा गया कि संगठन कमजोर है इसलिए हार गए। यही दलील 2016 में चुनाव न लड़ने की वजह एक वजह बनी, जिसमें डीयू प्रशासन द्वारा लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुरूप निष्पक्ष चुनाव न कराने की मंशा भी शामिल था।  लेकिन तब भी सीवाईएसएस समर्थित विद्यार्थी कॉलेज चुनाव में उतरे थे। यही नही, जिस लिंग्दोह का बहाना बनाकर सीवाईएसएस चुनाव नही लड़ी थी, 2015 में वह खुद सारे नियमों को ताक पर रख येन-केन प्रकारेण चुनाव जीतने की कोशिशों में लगी थी। उस चुनाव में जीतने के लिए कई हथकंडे भी अपनाए गए थे, जिनमें वो फर्जी ओपिनियन पोल भी शामिल था जिसमें कुल मतों का 45% मिलने के दावें किये गए थे। यही हथकंडा उसने 2018 में भी अपनाया था नामी कलाकारों के केजरीवाल की मौजूदगी में डीयू रॉक कॉन्सर्ट आयोजित हुआ था, जिसको लेकर तब आप के वरिष्ठ नेता रहे प्रशांत भूषण ने अपनी नाराजगी व्यक्त की थी और ये कहा था कि लिंग्दोह समिति की सिफारिशों की धज्जियाँ उड़ाने में सीवाईएसएस सबसे आगे निकल गयी है।  यही नही डीयू में विद्यार्थियों से वोट देने की अपील करते केजरीवाल के बड़े बड़े होर्डिंग भी लगे थे। इसके बावजूद उसे कुल मतों का केवल 16% मिला।
DUSU चुनाव- 2015 में आप नेता सरेआम फर्जी ओपिनियन पोल दिखाकर वोट बटोरने की कोशिश करते नज़र आये 


जिस संगठन के कमजोर होने का बहाना बनाकर सीवाईएसएस 2016 और 2017 के चुनाव से बाहर रही, उसके प्रति वह 2018 में भी कोई ख़ास चिंतित नज़र नही आई। 2 साल निष्क्रिय रही और विद्यार्थी हितों के लिए किये तमाम वादें अधूरे रहे। जब चुनाव सर पर था तो फटाफट संगठन खड़ा करने की याद आई। तब दिल्ली विश्वविद्यालय में सीवाईएसएस की यूनिट 23 अगस्त 2018 गठित हुई थी, जबकि चुनाव ठीक 19 दिन बाद यानी 12 सितंबर 2018 को होने थे। पूरी ताकत बटोरकर डूसू की राजनीति में तीसरी शक्ति बने AISA से गठजोड़ करके चुनावी फतह की योजना बनाई गई। खूब बड़े बड़े वादें किये लेकिन विद्यार्थियों ने उसे पसंद नही किया। नतीजा ये रहा कि 2018 की हार 2015 से भी शर्मनाक रही। चुनावी मुकाबले में केजरीवाल सरकार के तमाम मंत्रियों की मेहनत भी काम नही आई और चारों पदों पर बुरी हार का सामना करना पड़ा।

चुनाव लड़ने के लिए हुआ था सीवाईएसएस का गठन

28 सितंबर 2014 को सीवाईएसएस की स्थापना ही इसलिए हुई थी कि आप की लोकप्रियता को भुनाया जाए ताकि छात्रों के बीच आप की अपनी मजबूत पकड़ हो। स्थापना के समय पार्टी के बड़े नेताओं की मौजूदगी में अरविन्द केजरीवाल ने तब कहा था कि यह संगठन दिल्ली विश्वविद्यालय व छात्र संघ चुनावों के अलावा अन्य युवा गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाएगी। छात्र इकाई अगले साल से छात्र संघ चुनावों में भी हिस्सा लेगी। हुआ भी ऐसा ही। आप के सभी बड़े नेता अपने इस नए नवेले संगठन के पैर ज़माने के मिशन में जुट गए। सरकार की सक्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2015 में जब डीयू के नए सत्र में कक्षाएं शुरू हुई तो पहले दिन विद्यार्थियों का स्वागत करने आप के विधायक अलग अलग कॉलेज परिसर में मौजूद थे। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने काफी रूचि ली थी और सरकार की पूरी ताकत झोंक दी गयी थी। इसके बावजूद चारों पदों पर बुरी हार का सामना करना पड़ा। उपाध्यक्ष के पद पर दुसरे स्थान पर रहे, बाकी दो उम्मीदवार तीसरे, एक उम्मीदवार चौथे स्थान पर था। उपाध्यक्ष पद पर भी हार का अंतर काफी बड़ा था।
DU Rocks नाम से कॉन्सर्ट आयोजित किये गए ताकि युवा वोटरों को लुभाया जा सकें 


निष्क्रिय संगठन, वादों से मुकरने की मिली सजा

सीवाईएसएस की ऐसी हालत क्यों हुई, इसे जानने के लिए कुछ पहलुओं को समझना जरुरी है। संगठन केवल व्यक्तिगत लोकप्रियता के सहारे नही चलाई जा सकती। आप और उसके समर्थक संगठनों के लोगों को ये साधारण सी बात समझ नही आती। यही वजह रही है कि व्यक्ति केन्द्रित राजनीति ने 2015 के विधानसभा चुनावों के बाद किसी भी चुनाव में आप को सफलता नही दिला सकी है। वही दूसरी ओर चुनावी मौसम में सक्रियता सफलता की गारंटी नही बन सकती। वर्ष भर सक्रिय रहने वाले संगठन के मुकाबले सीवाईएसएस सत्ता के सहारे केवल चुनावी मौसम में नज़र आती है। बड़े वादे और उसपर अमल न करने की प्रवृति भी लोग पसंद नही करते।  

2018 की करारी हार का 2015 में किये वादों के साथ गहरा रिश्ता था। 2015 के अपने चुनावी वादें में विद्यार्थियों को फ्री वाई-फाई मुहैया कराने, मेट्रो किराये में आधे कमी करने, यू-स्पेशल बस चलाने, आम आदमी कैंटीन खोलने, डीटीसी बस पास पुरे साल के लिए मान्य करने जैसे वादें किये थे, जिसे दिल्ली सरकार आसानी से पूरा कर सकती थी। यही नही, किराए में बेतहाशा वृद्धि और मकानमालिकों से परेशान विद्यार्थियों के लिए भी कई लोकलुभावन वादें भी किये गए थे। मॉडल टेनैंसी एक्ट में डीयू स्टूडेंट्स का एक खंड जुड़वाने की बात की गयी ताकि बाहर से आने वाले विद्यार्थी, जो हॉस्टल की वजाए नीजी मकानों में रहते है, का घर अनायास खाली नही कराया जा सकें। सीवाईएसएस ने तब दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली स्टूडेंट पीजी एक्ट पास करने और रेंट पर रहने वाले विद्यार्थियों के बिजली-पानी के बिल माफ़ होने का सपना भी दिखाया था। लेकिन ऐसा कुछ भी नही हुआ। महिला सुरक्षा के लिए CCTV लगाने के वादे भी अमल में नही लाये गए। नतीजा गठबंधन के बावजूद छात्रों ने अपने वादों पर खरे नही उतरने की सजा दी और सीवाईएसएस को पूरी तरह नकार दिया।  


वामपंथियों से समझौता करना भी छात्रों को नही भाया। जिस तरह राष्ट्रीय मसलों पर आइसा का रुख रहता है, उससे बड़ी संख्या में डीयू के विद्यार्थी इत्तेफ़ाक नही रखते। आप समर्थकों का मानना था कि जब अकेले लड़कर 67 सीटें ला सकती है तो 2 साल बाद पूरी मजबूती से लड़ रही आप अकेले क्यों नही जीत सकती थी! तब कहा गया था कि आईसा के कैंपस राजनीति के अनुभव और आप सरकार के जरिये डीयू विद्यार्थी के हितों में काम करेगी। माना जाता है कि आप की छात्र इकाई और आइसा में गठजोड़ करवाने में आइसा के सदस्य रह चुके आप के वरिष्ठ नेता और दिल्ली सरकार में मंत्री गोपाल राय की बड़ी भूमिका थी। पिछले डूसू चुनाव के समय गोपाल राय काफी सक्रीय थे।

खैर चुनाव न लड़ने की वजह जो भी हो, दिल्ली में अगले वर्ष की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने वाले है। ऐसे में वह नही चाहती कि चुनावी साल में आम आदमी पार्टी की एक और हार हो। डूसू चुनाव के मैदान से हटना इसी रणनीति का एक हिस्सा है। वैसे बैलेट पेपर को निशाना बनाकर डूसू चुनाव का बहिष्कार करने वाली आप  क्या विधानसभा चुनाव में भी यही तरीका अपनाएगी? क्या इवीएम से चुनाव होने की स्थिति में आप अपने छात्र इकाई की तरह चुनाव का बहिष्कार करेगी? देखना दिलचस्प होगा!   

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के छात्र है और डीयू के छात्र-संघ राजनीति में सक्रिय रहे है) 

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