गाँधी और बिहार...ये दो शब्द जब ध्यान आते है
तो निलहों के विरूद्ध हुए चंपारण आंदोलन का जिक्र जरुर होता है। लेकिन चंपारण
आंदोलन केवल निलहों के अन्याय के विरूद्ध संघर्ष तक सिमित नही था। 15 अप्रैल 1917 को जब गाँधी चंपारण के इलाके में गए तो उनका सामना राजनीतिक गुलामी के साथ साथ अशिक्षा,गरीबी, गंदगी से भी हुआ। गाँधी के
शब्दों में कहे तो लोगो का अज्ञान दयनीय था। गााँवो के बच्चे मारे-मारे फिरते थे अथवा
माता-पिता दो या तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे सारे दिन नील के खेतो में मजदूरी
करवाते थे।
गाँधी ने स्थिति को
भांपते हुए राजनीतिक सत्याग्रह के साथ साथ ग्रामीण बदहाली के
जिम्मेवार अशिक्षा और गंदगी को भी समाप्त करने का प्रयास शुरू किया।
इसके लिए उन्होंने इस क्षेत्र
में स्कूल खोलने की योजना बनाई। गाँधी ने पहले 6 गांवों में स्कूल खोलने का
निश्चय किया लेकिन उनकी शर्त थी कि उन गांवों के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन
व्यय दे, उसके दुसरे खर्च की व्यवस्था हम करें। आर्थिक
तंगहाली से गुजर रहे लोगों ने पैसों की वजाए कच्चा अनाज देने को तैयार हो गए । जब
बात आई कि इन स्कूलों में शिक्षक कैसे हो, इस विषय पर गाँधी की सोच थी कि साधारण
शिक्षकों के हाथों में बच्चों को कभी न छोड़ना चाहिए । शिक्षक को अक्षर-ज्ञान चाहे
थोड़ा हो पर उसमें चरित्र बल तो होना ही चाहिए। इसके लिए उन्होंने स्वयंसेवकों की मदद
ली।
13
नवंबर 1917 को मोतिहारी के बरहरवा लखनसेन में
एक ग्रामीण के दिए ज़मीन पर गाँधी ने पहले
स्कूल की बुनियाद रखी।
उनके अनुयायी व पेशे से इंजीनियर बबन गोखले ने उस स्कूल की
व्यवस्था संभाली। गोखले
की पत्नी अवंतिका बाई गोखले और
गाँधी के सबसे
छोटे बेटे देवदास गांधी विद्यालय
में पठन-पाठन की जिम्मेदारी सँभालते थे।
बाद में 20 नवंबर 1917 को पश्चिम चंपारण के
भितिहरवा में भी
एक विद्यालय की स्थापना हुई जहाँ ज़मीन
एक मंदिर के साधू
ने उपलब्ध कराई थी।
विद्यालय को चलाने की
जिम्मेदारी सँभालने वालों में गाँधी की पत्नी
कस्तूरबा भी थी। एक और विद्यालय की स्थापना 17 जनवरी, 1918
को मधुबन में हुई।
गाँधी बुनियादी शिक्षा के अपने
सोच के प्रति बहुत गंभीर भी थे। चंपारण से जाने के बाद भी वे बुनियादी शिक्षा
की अपनी सोच के साथ बने रहे और उसे सार्वजनिक मंचों पर साझा करते रहे। कांग्रेस के 1935 के वर्धा सम्मलेन में
भी बुनियादी विद्यालय की वकालत करते
गाँधी दिखे थे। बुनियादी शिक्षा से जुड़ी
उनकी सोच को आगे बढ़ाती ज़ाकिर हुसैन समिति की
रिपोर्ट 1938 में प्रकाशित हुई। उसी वर्ष हरिपुरा कांग्रेस में
इस मॉडल को
अपनाने पर चर्चा भी हुई। कांग्रेस शासित 7 प्रदेशों ने इस
विचार को अपनाने की प्रक्रिया शुरू की, जिसमें बिहार सबसे अग्रणी था।
बिहार में दिसंबर, 1938
में बिहार बेसिक एजुकेशन बोर्ड तत्कालीन शिक्षा मंत्री की अध्यक्षता में
बनाया गया। 7 अप्रैल, 1939
को गाँधी जब दुबारा चंपारण की धरती
पर आये तो
अपने हाथों से पश्चिमी चंपारण के
बृन्दावन में बुनियादी स्कूल की
नीवं रखी। बाद
के दिनों में कई
और बुनियादी विद्यालय खुले। ऐसे
विद्यालय ‘महात्मा के स्कूल’ के
रूप में प्रचलित भी
हुए। आज
बिहार में ऐसे
391 विद्यालय है, जिनमें अकेले पश्चिमी चंपारण में ही
43 है।
बिहार
में ही उपेक्षित है बुनियादी स्कूल
आज़ादी के लगभग
10 वर्ष बाद ही बुनियादी
स्कूलों की
उपेक्षा शुरू हो
गई। प्रथम पंचवर्षीय योजना में गाँधी के
शिक्षा मॉडल पर काम करने का जिक्र तो था लेकिन उसे अमल में नही लाया गया। शायद
गाँधी को ये एहसास पहले हो गया था. वे अपनी आत्मकथा में लिखते है कि मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि
इस काम को स्थाई रूप देने का मेरा मनोरथ सफल न हो सका। जो स्वयंसेवक मिले थे, वे एक निश्चित अवधि के लिए ही मिले थे। दुसरे
नए स्वयंसेवकों को मिलने में कठिनाई हुई और बिहार से इस काम के लिए योग्य सेवक नही
मिलें. गाँधी लिखते है कि मैं कुछ
समय तक चम्पारण नहीं
जा सका और
जो पाठशालाएं वहां चल
रही थीं, वे एक-एक कर बंद
हो गईं। साथियों ने
और मैंने कितने हवाई किले
रचे थे पर कुछ
समय के लिए
तो वे सब
ढह गए। मैं
तो चाहता था कि
चम्पारण में शुरू
किए गए रचनात्मक काम
को जारी रखकर
लोगों में कुछ
वर्षों तक काम
करूं, अधिक पाठशालाएं खोलूं और
अधिक गांवों में प्रवेश करूं। क्षेत्र तैयार था।
पर ईश्वर ने मेरे
मनोरथ प्रायः पूरे होने
ही नहीं दिए।
मैंने सोचा कुछ
था और दैव
मुझे घसीट कर
ले गया एक
दूसरे ही काम
में।
बिहार में 70 के
दशक आते आते
सरकार नीजी स्वामित्व वाले
प्राथमिक और मिडिल स्कूलों के
अधिग्रहण में लग
गई तो ऐसे
स्कूल और उपेक्षित हो
गए। केवल
कागजों में बिहार बेसिक एजुकेशन बोर्ड कायम
रहा। इनमें होने
वाली नियुक्ति और सेवा
शर्तें भी अलग
ही रही। 1968 में बिहार सरकार ने
सयेद्दीन समिति की सिफारिशों को
मानते हुए बेसिक एजुकेशन स्कूल को
सामान्य स्कूल एजुकेशन व्यवस्था के साथ
सम्मिलित कर दिया
और यहाँ भी
बाकी स्कूलों के पाठ्यक्रम लागू
कर दिए गए। 16
मार्च 1972 से सरकार के अधीन
आये सभी बुनियादी स्कूलों में
एकीकृत पाठ्यक्रम कक्षा 1 से लेकर
8 तक में लागू कर
दिए गए। बुनियादी स्कूलों की
सरकारी उपेक्षा का अंदाजा इसी
बात से लगाया जा
सकता है कि
7 मार्च
1979 से लेकर 1 नवंबर 1991 तक बेसिक एजुकेशन बोर्ड की कोई
भी बैठक शिक्षा मंत्री की
अध्यक्षता में आयोजित नही
हुई। इस
अवधि के बाद
भी कोई और
बैठक हुई, इसकी
कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
एकीकृत बिहार में 518 बुनियादी स्कूल थे, जिनके पास 2500 एकड़ ज़मीने थे। यानी प्रति स्कूल लगभग 5 एकड़। इसके
अलावा इन विद्यालयों में
बड़ी संख्या में कक्षा-कक्ष, शिक्षकों के आवासीय परिसर, तालाब, पेड़, कृषि कार्य करने
के औजार सहित
अन्य संपत्तियां थी। वर्ष 2000 में जब बिहार बंटवारा हुआ
तो बिहार के हिस्से में
391 बुनियादी विद्यालय आये। इसमें अकेले पश्चिमी चंपारण में
ही 43 स्कूल है।
आज बिहार में बेसिक एजुकेशन बोर्ड को खत्म
करने का कोई
आदेश नही है, लेकिन बोर्ड का कोई
अस्तित्व नही दीखता। बोर्ड के
अधिकारीयों और कर्मचारियों को
दुसरे विभाग में भेज
दिया गया। सरकार द्वारा बुनियादी विद्यालयों की
स्थिति सुधारने की कोशिश भी
हुई। 1999 से 2004 के बीच
दो समिति भी बनी
कि बेसिक एजुकेशन बोर्ड को रहने
दिया जाए या
खत्म कर दिया
जाए मगर किसी
ने कोई रिपोर्ट नही
सौंपी।
जब 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में
सरकार बनी तो
मुचकुंद दुबे की
अध्यक्षता में 10 सितंबर 2006 को एकसमान विद्यालय प्रणाली पर
एक कमिटी बनाई गई, जिसने 8 जून 2007 को रिपोर्ट सौंपी थी। मुचकुंद दुबे समिति ने
अपनी तमाम सिफारिशों के
साथ साथ बुनियादी विद्यालयों को
फिर से पुनर्जीवित करने से जुड़े
कई सुझाव सरकार को सौंपे।
समिति का मानना था
कि जिन सिद्धांतों को
लेकर इन बुनियादों विद्यालयों की
स्थापना हुई थी, उसे हुबहू लागू करना
मुश्किल है लेकिन उत्पादक कार्य को
शिक्षण-शास्त्रीय माध्यम के रूप
में ज्ञान अर्जित करने, मूल्यों को विकसित करने, कौशल हासिल करने जैसे
लक्ष्यों को गांधीवादी सिधान्तों के जरिये अपनाया जा
सकता है। साथ ही सभी 391 स्कूलों को स्कूल लैब
के रूप में विकसित कर इसे बाकी स्कूलों के लिए सीखने की जगह बनाई जा सकती है। अफ़सोस
इस समिति के सिफारिशों पर अमल नही हुआ।
2012 में फिर से इन
स्कूलों की एकाएक चर्चा शुरू हुई। बिहार सरकार ने इन स्कूलों को विकसित करने,
शिक्षकों के खाली पद भरने और बुनियादी विद्यालय से इनका नाम कस्तूरबा विद्यालय
करने की बात कही। ये सभी वादें आधे-अधूरे ही रहे। स्थिति ये है कि 1992-93 के बाद
से आजतक कोई स्थाई नियुक्ति नही हुई है और अधिकांश स्कूल आज अस्थाई शिक्षकों के
सहारे ही चल रहे है। शैक्षिक गुणवत्ता की बात करना तो यहाँ बेमानी ही है।
आज इन विद्यालयों
के पास गाँधी की विरासत है, ज़मीने है। इसके अलावा यहाँ गाँधी नही दीखते, न
दीखते है उनके स्वप्नों का बुनियादी विद्यालय। ये आज बाकी सरकारी
स्कूलों
की तरह ही हो
गए।
बुनियादी स्कूल के पीछे
क्या थी गाँधी की सोच
शिक्षा के क्षेत्र में
गतिविधि आधारित शिक्षण की बहुत
बात होती है। इस बात को
गाँधी ने लगभग
सौ वर्ष पहले
महसूस किया। 18 फरवरी 1939 को गाँधी हरिजन पत्रिका में
लिखते है कि
बच्चों के लिए
मात्र पुस्तक-ज्ञान में इतना
खिंचाव नही होता
है कि वह
हर समय किताब में
ही घुसा रहे। शब्दों को देख-देखकर दिमाग ऊब जाता
है और बच्चे का
मन इधर-उधर
भटकने लगता है। जो शिक्षा हमें भले
और बुरे में
फर्क करना नही
सिखाती , भलाई को आत्मसात करना
और बुराई से दूर
रहना नही सिखाती है, वह शिक्षा गलत है। बस नाम की
शिक्षा है।
उनकी सोच थी
कि बुनियादी शिक्षा के तहत
सीखने की विधि
में समस्त विषयों की शिक्षा किसी
कार्य या हस्तशिल्प के
माध्यम से दिया
जाए। कृषिप्रधान देश
में सीखने का जरिया कैसा
हो, इस विषय
पर गाँधी मानते थे कि
सीखने की प्रक्रिया कृषि
से जुड़े कार्य, कताई, बुनाई, लकड़ी- मिट्टी का काम, मछली पालन, फल और
सब्जी की बागवानी तथा
स्थानीय एवं भौगौलिक आवश्यकताओं के
अनुकूल हस्तशिल्प से जुड़े
हो।
बुनियादी शिक्षा के
संबंध में गाँधी दो बातें चाहते थे, पहला, ज्ञान को कार्य के
साथ जोड़ा जाए
जिससे विद्यार्थियों के दिमाग का
समग्र और व्यवस्थित विकास हो
सकें। दूसरा, स्कूलों को उत्पादक कार्यों से
होने वाली आय
के जरिये आत्मनिर्भर बनाया जाए और
इसके साथ साथ
विद्यार्थियों के भी
क्षमता संवर्धन का काम
हो जिससे की वह
आत्मनिर्भर होकर गरिमापूर्ण जीवन
जी सकें।
गाँधी के पहले
विचार को 1944 में आई
सार्जेंट रिपोर्ट में भी
सराहा गया, लेकिन दुसरे सुझाव को अव्यवहारिक बताया गया। जाहिर है अंग्रेज भी
बुनियादी शिक्षा मॉडल से
कुछ हद तक
सहमत थे। असहमति के
विषय को गहराई में
जाकर सोचे तो
गाँधी ने इस
बात को भांप
लिया था कि
शिक्षा सरकार का विषय
होगा तो ग्रामीण शिक्षा की
स्थिति नही सुधरेगी। इसलिए शिक्षा सरकार का
न होकर समाज
का विषय बने। विद्यालय व बच्चों की
जरूरतों की चिंता समाज
के साथ साथ
विद्यालय-विद्यार्थी स्वयं एक व्यवस्था बनाकर करें।
गाँधी चाहते थे कि
बच्चें न केवल
अच्छी शिक्षा प्राप्त करें बल्कि वह
शिक्षा प्राप्त करते समय
आस-पास की
सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों से भी
रुबरु हो। वह
पढ़ लिखकर देश-समाज
के अनुकूल कार्य करने की
योग्यता और अनुभव प्राप्त कर
सकें। स्व-रोजगार के जरिये स्वाबलंबन का
रास्ता चुनने में उसे
कोई हिचकिचाहट न हो। समाज में पढ़ा-लिखा वर्ग भी
शारीरिक श्रम से
धन अर्जित करना अपमान अथवा
स्वयं को निम्न श्रेणी का
न समझ उसमें सम्मान का
भाव महसूस करें। इसके
साथ ही विद्यालय समाज
के सहयोग, समाज की
निगरानी और समाज
के नेतृत्व में ही
चले।
गाँधी की सोच
के पीछे भविष्य के
भारत की वह
छवि ही रही
होगी, जहाँ एक
तरफ ग्रामीण शिक्षा की हालत
ख़राब होती दिख
रही होगी, शहरीकरण गाँव
के खालीपन का वजह
बन रही होगी,
वही दूसरी तरफ गाँव
की समूची अर्थव्यवस्था चौपट होने के कगार पर होगी, गाँव को अपनी ही जरूरतों की
पूर्ति के लिए शहरों की तरफ देखना पड़ रहा होगा और लोगों में शारीरिक श्रम
करनेवाले लोगों को हेय
दृष्टि से देखने की
प्रचलन बढ़ रही
होगी।
एनसीईआरटी के वर्ष 2007 में "वर्क एंड
एजुकेशन" विषय पर बने राष्ट्रीय फोकस समूह ने भी मध्य-उच्च वर्गीय परिवारों
के बच्चों में अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने और वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था द्वारा
इस प्रक्रिया को बढ़ाने और तेज करने की समस्या को रेखांकित करते हुए इसे हल करने की
आवश्यकता पर बल दिया था।
गाँधी की इस
शैक्षिक योजना के पीछे
पुश्तैनी पेशे के
विचार को जबरदस्ती
आगे बढ़ाने पर जोर
देना नही था,
बल्कि शारीरिक श्रम के
प्रति सम्मान को बढ़ावा देना
था। आज
गांवों में कितने लोग
है जिन्होंने अपने पुश्तैनी पेशे
को आज भी
अपना रखा है?
अनुभव बताता है कि
लोग लगातर अपने पुश्तैनी पेशे
को छोड़ रहे
है। छोड़ने के
पीछे कई वजह
है,लेकिन सबसे बड़ी
वजह उस पेशे
के प्रति समाज में
बनी धारणा है जो
कही न कही
असम्मान की सूचक है। गाँधी
‘मेरे सपनों का भारत’ में युवाओं को दिशाबोध कराते हुए लिखते है कि हम लोगों को
मौजूदा ग्राम-सभ्यता ही कायम रखना है और उसके माने हुए दोषों को दूर करने का
प्रयत्न करना है। शारीरिक श्रम के साथ अकारण ही जो शर्म की भावना जुड़ गई है वह अगर
दूर की जा सके तो सामान्य बुद्धि वाले हर एक युवक और युवती के लिए उन्हें जितना
चाहिए उससे कहीं अधिक काम पड़ा हुआ है।
दुर्भाग्य है कि रोजगार का आधुनिक मॉडल लोगों को
गाँव छोड़ शहर जाने पर मजबूर कर रही है, वही शिक्षा का आधुनिक मॉडल गाँव-समाज की
जरूरतों और अपेक्षाओं की पूर्ति करने में नाकाम साबित हो रहा है। वैसे में जब
शिक्षा व्यवस्था पढ़े-लिखे
को गाँव से
जोड़ने की वजाए
उसे गाँव छोड़ने को
मजबूर कर रही
हो, गाँधी के 150 वीं जयंती वर्ष पर इस
बुनियादी शिक्षा मॉडल को
दुबारा नए सिरे
से परखने और आजमाने की जरुरत है।
अभिषेक रंजन
(लेखक ग्रामीण शिक्षा क्षेत्र में बीते एक दशक
से कार्य कर रहे है)
Very very happy to see your concern about buniadi Diksha. It is the only way to save India as well as the world bhojnandan
ReplyDeleteA realistic approach. Bhojnandan
ReplyDeleteGreat
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteYe sab sarkar ki galtiyo ka natiza h ki mahatma gandhi ke vicharo ka buniyadi vidhyalaya ka buniyad majboot nhi ho paya.asha karta hu ki sarkar jald se jald is par sangyan le.
ReplyDeleteYe sarkaro ki nakami to ka natiza hai ki mahatma gandhi ke vicharo ka buniyadi vidhyalaya ka buniyad majboot nhi ho paya.asha karta hu ki sarkar is par jald se jald sangyan le.
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