दिल्ली में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर
केजरीवाल सरकार का एक रिपोर्ट कार्ड जारी किया है। बीते 5 सालों में दिल्ली सरकार
की प्राथमिकता में शिक्षा रही है। यह बात रिपोर्ट कार्ड में पहला स्थान शिक्षा को
देने से स्पष्ट भी होता है। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की जो उपलब्धियां
रिपोर्ट कार्ड में बताई गई है, वह झूठ का पुलिंदा मात्र है।
कायदे से आम आदमी पार्टी को अपने उन चुनावी वायदे का हिसाब किताब देना चाहिए था, जिसे सामने रखकर वह प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई थी । लेकिन उन वायदों को भूल भ्रमित करने वाले तथ्य जनता के सामने परोसे जा रहे है।
आप ने 2015 के चुनाव के समय 500 नए सरकारी स्कूल खोलने, दिल्ली
के सभी निवासियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने, 17000 शिक्षकों की बहाली करने और शिक्षा
के लिए बजट बढ़ाने के वादे किये थे।
शिक्षा को लेकर किया वादा (संदर्भ: आप घोषणापत्र, 2015 विधानसभा चुनाव) |
बजट छोड़कर एक भी वायदा पूरा नही हुआ। लेकिन जिस
बढ़े शिक्षा बजट को लेकर आम आदमी पार्टी और दिल्ली सरकार अबतक समाचारों की
सुर्खियां बटोर रही है, उसमें भी तथ्यों के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ किया
गया है।
आप-प्रेमी फैक्ट चेक वेबसाइट तो बात नही करेंगे, सरकारी आंकड़ों और उपलब्ध जानकारियों के माध्यम से समझते है कि आप ने अपनी रिपोर्ट कार्ड में क्या बताया और उसकी असलियत क्या है!
शिक्षा क्षेत्र में 5 साल के किये काम पर 24 दिसंबर 2019 को जारी रिपोर्ट कार्ड |
बात पहले बजट की करते है
आप के नेता यह कहते नही थकते कि शिक्षा
को लेकर दिल्ली का बजट सबसे अधिक है और ऐसा पहले किसी सरकार में कभी नहीं हुआ।
सच्चाई
यही है कि भारत के इतिहास में दिल्ली कोई इकलौता राज्य नहीं है जिसने शिक्षा पर
अपने बजट का एक चौथाई हिस्सा आवंटित किया है। बीते एक दशक के आंकड़ों को देखे तो कई
ऐसे राज्य है जिन्होंने शिक्षा के लिए अपने कुल बजट का 20 से 30 फीसदी तक आवंटित
किये हैं। असम ने तो वर्ष 2000-01 में 25.5 फीसदी शिक्षा के लिए आवंटित किये थे। मेघालय
जैसे छोटे से राज्य ने वर्ष 2014-15 में अपनी बजट का 27.8 फीसदी शिक्षा के लिए
आवंटित किया।
असलियत तो ये है कि दिल्ली में हमेशा शिक्षा के लिए अधिक बजट आवंटित
करने का जो ट्रेंड पिछली सरकारों ने शुरू किया, आप
सरकार उसी पदचिन्हों पर चल रही है। आंकड़ों को देखे तो दिल्ली का बजट वर्ष 2000 से
लेकर अब-तक औसतन 15 फीसदी से हमेशा अधिक ही रहा है, जो देश के कई राज्यों से काफी
अधिक है।
बजट के मामले में यह समझना भी जरुरी है
कि दिल्ली शिक्षा पर इसलिए भी अधिक खर्च कर सकने में समर्थ है क्योंकि दिल्ली के पास धन
अधिक है, वही
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने की वजह से खर्च करने का क्षेत्र सिमित। वर्ष
2018-19 में दिल्ली का प्रति व्यक्ति आय 365529 है, जो कि राष्ट्रीय औसत 125397 से 3 गुना अधिक है।
दिल्ली का राजस्व अधिशेष (रेवेन्यू सरप्लस) भी 2017-18 के दौरान 4,913
करोड़ था। वही देखा जाए तो देश के कई बड़े राज्य भारी कर्ज में डूबे है, जिनकी
आय से कई गुना अधिक उनका खर्च रहता है।
केजरीवाल सरकार ने शिक्षा बजट की राशि
को बढ़ता हुआ दिखाया लेकिन खर्च करने के मामले में हमेशा फिसड्डी
रही है। 2008 से 2013 तक के ही आंकड़े देखे तो यह जानकर आश्चर्य होगा कि
कांग्रेसनीत शीला सरकार ने जहाँ आवंटित बजट का औसतन 98 फीसदी खर्च किया, वही
केजरीवाल सरकार किसी भी वित्तीय वर्ष में इस आंकड़े के आस-पास भी नही पहुंच पाती
है। बात केवल शिक्षा की ही करे तो दिल्ली सरकार ने शिक्षा के लिए आवंटित बजट का
2014-15 में 62 फीसदी, 2015-16 में 57 फीसदी, 2016-17
में 79 फीसदी ही खर्च कर पायी, बाकी के पैसे खर्च ही नहीं हुए।(पढ़े इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट) कुछ
यही हाल बीते दो वर्षों में भी देखने को मिला है।
यहां ध्यान देने वाली बात है कि शिक्षा
के लिए आवंटित बजट की कुल राशि में स्कूली शिक्षा के साथ उच्च शिक्षा भी शामिल है। शिक्षा पर कुल खर्च उतना नही है, जितना बताने की कोशिश हो रही है।
शिक्षा पर हुआ कुल खर्च दिखाए जाने वाले आंकड़ों से इतर है ( Source- Delhi Planning) |
अगर आंकड़ों की बात करें तो सामान्य शिक्षा के जुड़ी योजनाओं के लिए वर्ष 2017-18 के
बजट में 2970 करोड़ खर्च करने का प्रावधान किया गया था, लेकिन
वास्तविकता में खर्च 2374.75 करोड़ ही खर्च हुए। वही तकनीकी
शिक्षा के लिए जहां बजट में 363 करोड़ का प्रावधान किया गया था, उसमे
से मात्र 193.36 करोड़ ही खर्च हुए। उच्च शिक्षा की बात केजरीवाल सरकार अमूमन कम
करती है, स्कूली शिक्षा में क्रांति के उसके दावे होते है लेकिन जब प्राथमिक
शिक्षा के लिए आवंटित बजट की स्थिति देखे तो डायरेक्टरेट ऑफ एजुकेशन को जहां 2018-19
के बजट में 2127 करोड़ आवंटित किये गए थे, खर्च केवल 1677.46 करोड़ ही हुए। ऐसी ही
स्थिति उच्च शिक्षा के लिए आवंटित बजट में भी देखने को मिलती है। उच्च शिक्षा के
लिए 483 करोड़ आवंटित हुए, जबकि इसमें से 337.28 करोड़ ही खर्च
हुए। इसके साथ ही बजट प्रस्तुत करते समय बजट अनुमान और संशोधित अनुमान के आंकड़ों
में काफी अंतर देखने को मिला है।
शिक्षा पर हुए खर्च की जानकारी (वित्तीय वर्ष 2017-18) |
दिल्ली के शिक्षा बजट देखने में भले
तीन गुना हो गया हो लेकिन सच्चाई तो यही है कि यह राज्य के कुल सकल राज्य घरेलू
उत्पाद (ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रॉडक्ट यानी GSDP) का
2 फीसदी भी नहीं है। वर्ष 2018-19 में शिक्षा के लिए आवंटित बजट को ही माने तो शिक्षा
पर जीएसडीपी का मात्र 1.53% ही खर्च हो रहे है। अगर इसे पिछले सरकार के
आंकड़ों से तुलना करें तो 2013-14 में दिल्ली ने अपने कुल GSDP का
जहाँ 1.29 फीसदी शिक्षा के लिए आवंटित किये, वहीं
2017-18 तक केवल 0.15% की ही बढ़ोतरी हुई। यानी दिल्ली की जितनी आर्थिक क्षमता
बढ़ी उस हिसाब से शिक्षा के लिए आवंटित यह बजट मात्र आंकड़ों की बाजीगरी से इतर कुछ
भी नहीं है। देश की जीडीपी के 6% खर्च करने के पैरोकार अरविंद केजरीवाल और
उनके साथी राज्य के जीएसडीपी के 2% के भी आंकड़े को नही छू सकें है, यह बात
बड़ी चालाकी से छुपा लेते हैं।
नए
क्लासरूम
7 मार्च 2017 को विधानसभा में दिए अपने
भाषण में शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा था कि 8000 कमरों का काम लगभग पूरा
हो गया, आगामी वित्तीय वर्ष में 10000 नए कमरे बनाने का काम शुरू कर लिया जाएगा।
लेकिन आप की आधिकारिक वेबसाइट कुछ और हकीक़त बता रही है। लगभग 6 माह बाद यानी 7
अक्टूबर 2017 को आम आदमी पार्टी की वेबसाइट द्वारा जारी प्रेस रिलीज के मुताबिक दिल्ली
के स्कूलों में केवल 5695 कमरे बने थे। मतलब विधानसभा में भी दिल्ली के शिक्षा
मंत्री ने झूठ बोला।
जब 2018-19 का इकॉनोमिक सर्वे आया तो
पता लगा 8095 कमरे ही बने है।
लेकिन ठीक 2 महीने बाद जब लोकसभा चुनाव के लिए
पार्टी ने घोषणापत्र जारी किया तो बनने वाले क्लासरूम की संख्या 8213 बताए।
चलो यहाँ तक ठीक है। 8000 कमरे बन गए।
लेकिन अब रिपोर्ट
कार्ड के जरिये ये दावा किया जा रहा है कि सरकार ने 20000 कमरे बना लिए तो उसकी
सच्चाई क्या है, किसी को नही मालूम है क्योंकि लगातार भ्रामक आंकड़े सरकार और
पार्टी की ओर से दिए जा रहे है।
28 जनवरी, 2019 को
केजरीवाल सरकार ने दिल्ली के कोने-कोने में विज्ञापन देकर बताया कि दिल्ली के
सरकारी स्कूलों में 11000 नए कमरे बनाने का शिलान्यास हो रहा है तो 1000 कमरे नए
कमरे अलग से बनने की प्रक्रिया कब शुरू हुई?
यही नही, दिल्ली
सरकार ने 4 साल में 8000 नए कमरे बनाये तो यह बताया ही नही कि इसमें से बच्चों के
बैठने वाले क्लासरूम कितने है और बाकी काम के लिए कितने! वही जब आम आदमी पार्टी ने
दावा किया कि ये कमरे उसने केंद्र सरकार के तमाम रुकावटों के बावजूद बनाए हैं। फिर यह शक होना लाजमी है कि जो सरकार 4 साल में 25फीसदी बजट के बावजूद
केवल 8000 कमरे ही बनवा पाती हो, वह अगर नवंबर 2019 तक 12000 और नए बनाने के दावे करें
तो लगता है बड़ी बेबाकी से दिल्ली की जनता से सफ़ेद झूठ बोले जा रहे है!
यहाँ यह भूलना उचित
नही होगा कि इन नए कमरों के बनाने में भ्रष्टाचार के आरोप लगे है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी यही बताती है कि नए कमरों को बनाने में कुछ तो गड़बड़ किया गया है. भाजपा के आवेदन पर इस पर जाँच भी चल रही है. (पढ़े क्लासरूम घोटाले की ख़बर) .
ऐसा लगता है कि नए कमरे बनाने के नामपर पर्दा के पीछे खेल चल रहा।
आखिर जब सरकार के आंकड़ों में 11000 नए कमरे बनने की बात हो
रही है, फिर अतिरिक्त 1000 कमरे कहाँ, कब और कैसे बनाये गए, यह बात कब सार्वजनिक
रूप से बताई गई। सवाल यह भी
अनुत्तरित है कि नए कमरे बनाने से 500 नए स्कूल बनाने के वादे से आम आदमी पार्टी
क्यों मुकर गई! सरकार की यह मंशा भी बेहद खतरनाक है, जहाँ वो नए स्कूल खोलने की
वजाए, नए कमरे बनाकर सुबह और शाम की शिफ्ट में चलने वाले स्कूलों को एक शिफ्ट में
करने की योजना पाले आगे बढ़ रही है। यह हुआ तो भीड़ में न तो पढ़ाई होगी, न ही शैक्षिक गुणवत्ता बचेगी। शिक्षकों और प्राचार्यों के पद खत्म तो होंगे ही।
बारहवी
के रिजल्ट
आप सरकार और उनके समर्थकों द्वारा एक
और झूठ फैलाया जाता है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने पहली बार प्राइवेट स्कूलों
को भी पछाड़ दिया है। 12वीं के परीक्षा परिणामों का संदर्भ देते ऐसे लोग खूब नज़र
आते है। अपनी रिपोर्ट कार्ड में भी इसका जिक्र उपलब्धि बताते हुए शामिल की गई है।
लेकिन जब बात 10 वीं के परीक्षा परिणामों की होती है तो बेतुके दलीले देकर सब
चुप्पी साध लेते है। हालत ये है कि दिल्ली के स्कूलों का परिणाम 2006-07 के अपने
सबसे निचले स्तर 77.12 फीसदी से भी नीचे है। source
बात पहले 12वीं के परिणामों की! पहली
बार यह सुनना बहुत अच्छा लगता है कि सरकारी स्कूल प्राइवेट से भी बेहतर परिणाम ला
रहे है लेकिन दिल्ली के मामले में क्या ये पहली बार हो रहा है? मालूम
चलेगा नही।
दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने पहले भी
प्राइवेट स्कूलों को पछाड़ा है। 2009 और 2010 में सरकारी स्कूलों का 12वीं में
प्रदर्शन प्राइवेट स्कूलों से बेहतर था।
ये भी कहना अतिरेक है कि परीक्षा परिणाम में सुधार केवल आप की सरकार बनने के बाद हुए। आंकड़े बताते है कि दिल्ली के सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के परीक्षा परिणामों के गैप पहले के मुकाबले बेहद कम हुए है। 2005 में सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच 13 अंकों का फासला था। तब सरकारी स्कूलों में 12वीं में पढ़ने वाले बच्चों का परिणाम 76.44 फीसदी था, वही प्राइवेट स्कूलों के बच्चों का परिणाम 89.47 फीसदी था। कभी 13 अंक से पिछड़ने वाले दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने प्राइवेट स्कूलों की न केवल बराबरी की, बल्कि उसे पछाड़ा भी। बीते 3 साल से यही दुहराया जा रहा है लेकिन सरकारी और प्राइवेट के बीच का फासला बहुत अधिक का नही है जैसा बीते दशकों में था।
2008-2015 तक दिल्ली के सरकारी स्कूलों
में पढ़ने वाले बच्चों का परीक्षा परिणाम कभी 85% से कम नही हुआ। पिछले 3 सालों में
अगर मामूली बढ़त हुई भी है तो उसी अनुपात में प्राइवेट स्कूलों का भी परिणाम सुधरा
है। इस सत्र यानी 2018-19 में सरकारी स्कूलों का आंकड़ा 94 फीसदी था तो प्राइवेट
स्कूलों के आंकड़े भी 90 फीसदी से ऊपर थे।
एक बेहद चौंकाने वाली बात यह है कि बीते
दो दशकों में परीक्षा परिणाम भले ही चाहे जैसा आये, परीक्षा
में बैठने वाले बच्चों की संख्या हमेशा बढ़ती रही है। जहाँ 1998-99 में 44918
बच्चें 12वीं की परीक्षा में बैठे थे, वही यह संख्या बढ़ते बढ़ते 2014 में 166257 बच्चों तक
पहुँच गई। लेकिन जैसे ही आप सरकार में आई, परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों
की संख्या हर साल घटते गई। हालत ये थी कि वर्ष 2018 में बैठने वाले बच्चों की
संख्या 112826 हो गई। ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब दिल्ली की जनसँख्या बढ़ रही
है, स्कूल वर्ल्डक्लास बन चुके है, फिर बच्चों की संख्या कम क्यों हो रही है?
कहा जाता है कि 12वीं के परीक्षा
परिणाम बेहतर करने के लिए हर साल 9वीं एवं 11वीं की परीक्षा में बड़ी संख्या में
बच्चों को फेल किया जा रहा है ताकि केवल अच्छे बच्चें ही 12वीं की परीक्षा दे
सकें। हर साल परीक्षार्थियों की घटती संख्या इसकी गवाही देते है। उपलब्ध आंकड़े
बताते है कि हर साल लगभग आधे बच्चों को 9 वीं में फेल कर दिया जाता है, वही 11वीं
कक्षा में भी एक तिहाई बच्चों की छंटनी कर दी जाती है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट पढ़े -
यहाँ यह भी देखना पड़ेगा कि जहाँ सरकारी
स्कूलों में बच्चें कम हो रहे है, वही हर साल प्राइवेट स्कूलों में
बच्चें बढ़ रहे है। प्राइवेट स्कूलों में कुल नामांकन का शेयर भी दिल्ली में बढ़ता
जा रहा है। सरकार द्वारा जारी की गयी इकॉनोमिक सर्वे की रिपोर्ट के आंकड़े इसकी
गवाही देते है। इसके मुताबिक 2014-15 में जहाँ प्राइवेट स्कूलों का शेयर 31 फीसदी
था, वह 2017-18 में 45.5 फीसदी हो गया।
10वीं के ख़राब परिणाम का ठीकरा किसी और
पर फोड़कर बड़ी चालाकी से अपनी नाकामी छुपाने में यह सरकार कायम रही है। न तो विपक्ष
ने कभी इसे मुद्दा बनाया, न मीडिया ने। हालत यह है कि इस वर्ष यानी 2018-19 में प्राइवेट
स्कूलों के मुकाबले दिल्ली के सरकारी स्कूल 21 अंक पीछे रहे है। जहाँ दिल्ली के
सरकारी स्कूलों का सामूहिक प्रतिशत 71.58 फीसदी था, प्राइवेट स्कूलों का परिणाम 93.12 फीसदी।
पिछले सत्र यानी 2017-18 में 10वीं परिणाम जब आये तो जहाँ सरकारी स्कूलों के 69.32
फीसदी बच्चें पास हुए थे, प्राइवेट
स्कूलों के बच्चों के 89.45 फीसदी ही पास हो सके थे। बीते दो सालों में 10वीं की
परीक्षा में दिल्ली के स्कूल राष्ट्रीय औसत से भी काफी कम परिणाम दे रहा है, इसके बावजूद इसकी जिम्मेवारी
लेने के लिए कोई आगे नही आ रहा।
दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 10वीं के
रिजल्ट की हालत एक दशक पहले भी ऐसी नही थी। इसे ख़राब स्थिति में लाने का श्रेय आप
सरकार को जाता है, जहाँ दिल्ली का प्रदर्शन पिछले एक दशक का भी रिकॉर्ड तोड़ अपने
सबसे निम्नतम स्तर पर आ गया है। सरकारी और प्राइवेट के बीच के निगेटिव फासले को
वर्ष 2001-02 के -45 अंकों से जो सरकार +1.17 में ले आई थी, 2013
में जिसने प्राइवेट स्कूलों को पछाड़ने का काम किया था, आप
सरकार की नीतियाँ उसे दुबारा -21 में ले आई। प्राइवेट और सरकारी के बीच के गैप को
पाटने में जो मेहनत दिल्ली के सरकारी स्कूलों में आप की सरकार बनने से पहले हुई थी,
उसे चौपट करने की जिम्मेवारी दिल्ली सरकार को लेनी ही चाहिए। यह हालत
तब है जबकी पिछले 4 सालों से लगातार 42 फीसदी से अधिक बच्चें 9वीं की परीक्षा में
फेल हो रहे थे यानी बेहतर बच्चें ही अगली कक्षा में भेजे गए फिर भी परिणाम नही
सुधरा।
सबसे बड़ी बात है कि दिल्ली के सरकारी
स्कूलों में बड़ी संख्या में उन बच्चों को दुबारा नामांकन नही लेने दिया जा रहा,
जो फेल हो गए थे। पिछले सत्र यानि 2017-18 में ऐसे बच्चों की संख्या
66 फीसदी थी।
कहना गलत नही होगा कि रिपोर्ट कार्ड के
जरिये केजरीवाल सरकार अपनी नाकामी तो छुपा ही रही है, रिपोर्ट कार्ड ये भी साबित
करता है कि पार्टी अपने चुनावी वायदे को भी पूरा करने में असफल रही है। न तो स्कूल
खुले, न नामांकन बढ़े, न परिणाम सुधरे, न शिक्षक बहाल हुए। बस गिने-चुने स्कूलों में
करोड़ों लुटाकर और उनकी तस्वीरें दिखाकर यह बताने की कोशिश हो रही है कि शिक्षा में
क्रांति आ गई है और दिल्ली के सरकारी स्कूलों का कायापलट हो गया है।
दरअसल आप की
शिक्षा क्रांति, उस खुबसूरत सी दिखने वाली रंगीन बैलून की तरह है, जो बाहर से
देखने में मनभावन तो लगती है लेकिन अंदर से बिल्कुल खोखला है। प्रचार तंत्र के साए
में वाहवाही बटोरने वाली ये बैलून जब फूटेगी तो शिक्षा के क्षेत्र में कुछ बदल
जाने की आस पाले कईयों के भरोसे टूटेंगे। फिलहाल दिल्ली के गरीब लोगों के लिए
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक स्वप्न की तरह ही है।
(नोट- परीक्षा परिणामों के आंकड़े http://www.edudel.nic.in/Result_Analysis से लिए गए है)
तथ्यों और तर्कों पर आधारित विश्लेष...
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